आज सुबह जब मैं ऑफिस बस के स्टॉप पर जा रही थी तो एक २० साल का लड़का मेरे सामने काफी गन्दी बाते करते हुआ गया. लिखना नहीं चाहूंगी उसके शब्द पर गालियों से भी ख़राब था जो उसने कहा. मैंने सुन कर भी उसकी तरफ देखा नहीं और आगे बढ़ गई. दिमाग में वही शब्द गूँज रहे थे. सोच रही थी कि मैं ३० साल से ऊपर की हूँ और वो बस २० साल का था पर उसने ऐसा कहने की हिम्मत कर ही डाली. कैसा हो गया है आस पास का माहौल? ये हाल जब देश की राजधानी का है तो गाओं और कस्बो में तो क्या क्या हो रहा होगा लड़कियों और महिलाओ के साथ?
खैर, फिर बस में बैठी तो अचानक ही नज़र आज की तारिख पर गई. १५ दिसंबर है, और इससे मुझे याद आया १६ दिसंबर. १६ दिसंबर २०१२ की ही रात पांच दरिंदों ने 23 वर्षीया निर्भया के साथ सामूहिक बलातकार किया था. निर्भया ने मौत से 13 दिन तक जूझते हुए इलाज के दौरान सिंगापुर में दम तोड़ दिया था. इस भयानक हादसे के बाद दिल्ली 'दुष्कर्म की राजधानी' कहलाने लगी. कितने ही आंदोलन हुए. लोगो ने सड़को पर अपना रोष व्यक्त किआ. जुलूस निकले. सभाएं हुई और सरकार को मज़बूर कर दिया गया लोगो की आवाज सुनने के लिए. फिर नया कानून बना, बजट में फण्ड मिला महिला सुरक्षा को और दावे किये गए हालत बेहतर बनाने के. पर क्या कुछ बदला तब से? क्या महिलाओं के लिए दिल्ली अब सुरक्षित है?आंकड़ों में तो इसकी पुष्टि होती नहीं दिखती. दिल्ली और इसके आसपास के क्षेत्रों में रह रही और काम कर रहीं महिलाएं केंद्र और राज्य सरकारों के महिला सुरक्षा के दावों के विपरीत खुद को यहां सुरक्षित महसूस नहीं करतीं. और मैं भी उनमे से एक हूँ.
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) ने २०१६ -१७ के जारी आंकड़ें जारी किए हैं जिसके मुताबिक, दिल्ली में अपराध की उच्चतम दर १६०.४ फीसदी रही, जबकि इस दौरान अपराध की राष्ट्रीय औसत दर ५५.२ फीसदी है. इस दौरान दिल्ली के आंकड़े कुछ इस तरह थे (२,१५५ रेप के मामले, ६६९ पीछा करने के मामले और ४१ घूरने के मामले ) ऐसे लगभग ४० फीसदी मामले दर्ज हुए थे. पहले खुलेआम दिन-दहाड़े महिलाओं के साथ छेड़छाड़ की खबरें अजीब लगती थी. लेकिन दिल्ली की सड़कों पर छेड़छाड़ और रेप की धमकियां अजीब नहीं, बल्कि आम बात हो गई है. मैं भी कई बार इसकी शिकार रही हूं. रात के ८-९ के बाद, दिल्ली में हर लड़की खुद को सुरक्षित नहीं महसूस करती. पता नहीं कौन दूर खड़ा कुछ सोच रहा हो और फिर आकर अपनी गन्दी मानसिकता का शिकार बना ले? उर्म, कपड़े और शक्ल कुछ नहीं मायने रखता ऐसी घटनाओ में. क्या छोटी बच्चियाँ हो और क्या ४० साल की महिलाएं. कई बार महिला और उनके परिधानों को उनकी मुसीबतों के लिए जिम्मेदार माना जाता है. पर शालीन कपड़े पहनने के बावजूद भी लड़कियाँ छेड़छाड़ की शिकार हो रही है. वो शख्स जिसकी मानसिकता खराब हो, हमेशा छेड़छाड़ करने की कोशिश करेगा, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपने क्या पहना है या आपकी उम्र क्या लग रही है.
कुछ महीनो पहले सेल्फ-डिफेन्स की एक वर्कशॉप की थी मैंने. उसके बाद मैंने बैग में पेप्पर स्प्रे रखना शुरू कर दिया. वर्कशॉप से ये तो सीखा पर पुलिस पर विश्वास अभी भी नहीं है. और मुझे क्या शायद किसी भी लड़की को नहीं होगा क्यूकी हेल्पलाइन ज्यादातर चलती नहीं सुनाई देती. और समय से पुलिस कभी मदद के लिए आती नहीं. निर्भया की घटना के बाद से हर साल १६ दिसंबर को निर्भया की कहानी न्यूज़ चैनेलो पर सुबह से शुरू हो जाती है. लोग उस रास्ते को फिर से टटोलते है जहा से वो बस हो कर गुजरी थी जिसमे निर्भया का रेप हुआ था. और भी ना जाने कैसे कैसे शोज आते है जो निर्भया के परिवार से उनकी आप बीती एक बार फिर सुनते है. पर मुझे समझ नहीं आता कि उस घटना को एक बार फिर से जी कर क्या मिलता है? एक बार फिर से निर्भया की माँ को रोता देख क्या अच्छा लगता है? वैसे, निर्भया की माँ ने काफी हद तक कोशिश की कि कुछ बदलवा आए. वो भी कई सारे आंदोलनों का हिस्सा बनी और अपनी आवाज उठाई. पर ढाक के तीन पात, कुछ खास बदल नहीं पाया. दिल्ली आज भी वैसे ही असुरक्षित है जैसे निर्भया को मिली थी उस रात. लोगो की मानसिकता तो पूरे देश में ही बदल चुकी है महिलाओ के प्रति पर दिल्ली में कुछ ज्यादा ही ख़राब दिखाई देती है.
बड़े दुःख के साथ कहना पड़ रहा है कि " निर्भया, आज भी कुछ बदला नहीं है दिल्ली में. लोगो ने तुम्हारा नाम कई तरीको से इस्तेमाल किया.पर कुछ बदल ना पाए. तुम्हारा जाना बस एक घटना और दिन बन कर रह गया है. १६ दिसंबर हर साल निर्भया की घटना के नाम से जाना जाता है और TV पर उस दिन हम एक बार फिर से जी लेते है जो तुम्हारे साथ हुआ. पर निर्भया, कुछ नहीं बदला नहीं है दिल्ली में. दिल्ली में रहना अब साँप-सीढ़ी खेलने सा है. पता नहीं किस दिन, किस समय और किस जगह कोई साँप काट ले."
पहले प्रकाशित यहाँ : https://www.mycity4kids.com/parenting/cooperation-communication-and-affection-thee-keys-of-parenting/article/nirbhaya-aja-bhi-kucha-badala-nahi-n-hai-dilli-me-nखैर, फिर बस में बैठी तो अचानक ही नज़र आज की तारिख पर गई. १५ दिसंबर है, और इससे मुझे याद आया १६ दिसंबर. १६ दिसंबर २०१२ की ही रात पांच दरिंदों ने 23 वर्षीया निर्भया के साथ सामूहिक बलातकार किया था. निर्भया ने मौत से 13 दिन तक जूझते हुए इलाज के दौरान सिंगापुर में दम तोड़ दिया था. इस भयानक हादसे के बाद दिल्ली 'दुष्कर्म की राजधानी' कहलाने लगी. कितने ही आंदोलन हुए. लोगो ने सड़को पर अपना रोष व्यक्त किआ. जुलूस निकले. सभाएं हुई और सरकार को मज़बूर कर दिया गया लोगो की आवाज सुनने के लिए. फिर नया कानून बना, बजट में फण्ड मिला महिला सुरक्षा को और दावे किये गए हालत बेहतर बनाने के. पर क्या कुछ बदला तब से? क्या महिलाओं के लिए दिल्ली अब सुरक्षित है?आंकड़ों में तो इसकी पुष्टि होती नहीं दिखती. दिल्ली और इसके आसपास के क्षेत्रों में रह रही और काम कर रहीं महिलाएं केंद्र और राज्य सरकारों के महिला सुरक्षा के दावों के विपरीत खुद को यहां सुरक्षित महसूस नहीं करतीं. और मैं भी उनमे से एक हूँ.
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) ने २०१६ -१७ के जारी आंकड़ें जारी किए हैं जिसके मुताबिक, दिल्ली में अपराध की उच्चतम दर १६०.४ फीसदी रही, जबकि इस दौरान अपराध की राष्ट्रीय औसत दर ५५.२ फीसदी है. इस दौरान दिल्ली के आंकड़े कुछ इस तरह थे (२,१५५ रेप के मामले, ६६९ पीछा करने के मामले और ४१ घूरने के मामले ) ऐसे लगभग ४० फीसदी मामले दर्ज हुए थे. पहले खुलेआम दिन-दहाड़े महिलाओं के साथ छेड़छाड़ की खबरें अजीब लगती थी. लेकिन दिल्ली की सड़कों पर छेड़छाड़ और रेप की धमकियां अजीब नहीं, बल्कि आम बात हो गई है. मैं भी कई बार इसकी शिकार रही हूं. रात के ८-९ के बाद, दिल्ली में हर लड़की खुद को सुरक्षित नहीं महसूस करती. पता नहीं कौन दूर खड़ा कुछ सोच रहा हो और फिर आकर अपनी गन्दी मानसिकता का शिकार बना ले? उर्म, कपड़े और शक्ल कुछ नहीं मायने रखता ऐसी घटनाओ में. क्या छोटी बच्चियाँ हो और क्या ४० साल की महिलाएं. कई बार महिला और उनके परिधानों को उनकी मुसीबतों के लिए जिम्मेदार माना जाता है. पर शालीन कपड़े पहनने के बावजूद भी लड़कियाँ छेड़छाड़ की शिकार हो रही है. वो शख्स जिसकी मानसिकता खराब हो, हमेशा छेड़छाड़ करने की कोशिश करेगा, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपने क्या पहना है या आपकी उम्र क्या लग रही है.
कुछ महीनो पहले सेल्फ-डिफेन्स की एक वर्कशॉप की थी मैंने. उसके बाद मैंने बैग में पेप्पर स्प्रे रखना शुरू कर दिया. वर्कशॉप से ये तो सीखा पर पुलिस पर विश्वास अभी भी नहीं है. और मुझे क्या शायद किसी भी लड़की को नहीं होगा क्यूकी हेल्पलाइन ज्यादातर चलती नहीं सुनाई देती. और समय से पुलिस कभी मदद के लिए आती नहीं. निर्भया की घटना के बाद से हर साल १६ दिसंबर को निर्भया की कहानी न्यूज़ चैनेलो पर सुबह से शुरू हो जाती है. लोग उस रास्ते को फिर से टटोलते है जहा से वो बस हो कर गुजरी थी जिसमे निर्भया का रेप हुआ था. और भी ना जाने कैसे कैसे शोज आते है जो निर्भया के परिवार से उनकी आप बीती एक बार फिर सुनते है. पर मुझे समझ नहीं आता कि उस घटना को एक बार फिर से जी कर क्या मिलता है? एक बार फिर से निर्भया की माँ को रोता देख क्या अच्छा लगता है? वैसे, निर्भया की माँ ने काफी हद तक कोशिश की कि कुछ बदलवा आए. वो भी कई सारे आंदोलनों का हिस्सा बनी और अपनी आवाज उठाई. पर ढाक के तीन पात, कुछ खास बदल नहीं पाया. दिल्ली आज भी वैसे ही असुरक्षित है जैसे निर्भया को मिली थी उस रात. लोगो की मानसिकता तो पूरे देश में ही बदल चुकी है महिलाओ के प्रति पर दिल्ली में कुछ ज्यादा ही ख़राब दिखाई देती है.
बड़े दुःख के साथ कहना पड़ रहा है कि " निर्भया, आज भी कुछ बदला नहीं है दिल्ली में. लोगो ने तुम्हारा नाम कई तरीको से इस्तेमाल किया.पर कुछ बदल ना पाए. तुम्हारा जाना बस एक घटना और दिन बन कर रह गया है. १६ दिसंबर हर साल निर्भया की घटना के नाम से जाना जाता है और TV पर उस दिन हम एक बार फिर से जी लेते है जो तुम्हारे साथ हुआ. पर निर्भया, कुछ नहीं बदला नहीं है दिल्ली में. दिल्ली में रहना अब साँप-सीढ़ी खेलने सा है. पता नहीं किस दिन, किस समय और किस जगह कोई साँप काट ले."
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