चौदह नवंबर बाल दिवस के रूप में मनाने का औचित्य यह है कि पं. जवाहरलाल नेहरू मानते थे कि बच्चों से ही देश का भविष्य बनता है. उनकी यह अवधारणा सौ फीसदी सत्य है, क्योंकि आज जन्मा शिशु भविष्य में राजनीतिज्ञ, वैज्ञानिक, लेखक, शिक्षक, चिकित्सक, इंजीनियर या मजदूर कुछ भी बने आखिर राष्ट्र निर्माण का भवन इन्हीं की नींव पर खड़ा होता है. पर मुझे लगता है कि आज के समय में हम बच्चो के साथ अच्छा नहीं कर रहे. उन्हें भविष्य के लिए तैयार करते करते उनका "आज" उनसे छीन रहे हैं. दुनिया में धीरे-धीरे बच्चों का अकाल पड़ता जा रहा है. अकाल, बचपने का, अकाल भोली और सीधी साधी बातो का. पहले बचपन चौदह-पंद्रह साल तक रहता था. और मैं ज्यादा पहले की नहीं , बल्कि अपने ही बचपन के अनुभव से ऐसा बोल सकती हूँ. इस उम्र तक मेरे बचपन में ज्यादातर बच्चे अच्छा खाने और घूमने के आगे की बातें सोचते ही नहीं थे. पर आज के गतिशील समाज में बचपन सिमटता सा जा रहा है. हर जगह बच्चों में परिपक्वता सालने लगी है.
(गाय मीन्स काऊ (cow) - नई पीढ़ी की सीख)
कल TV पर एक शो देख रही थी. एक ७ साल की बच्ची ने कहा कि वो बड़े होकर ऑस्ट्रोनोट बनना चाहती हैं. मुझे तो इस उम्र तक शायद ये भी नहीं पता था कि अंतरिक्ष में लोग जा भी सकते हैं. बच्चे समय से पहले ही बड़े हो रहे है आज कल. पिछली पीढ़ी जिन बातों के बारे में पंद्रह-सोलह की उम्र में सोचती थी, उन बातों के बारे में नई पीढ़ी दस-ग्यारह में ही रूबरू होने लगी है. बच्चो की किताबे और दिन ब दिन बढ़ती प्रतिस्पर्धा को देख कर लगता है कि अब समय भी ज्यादा ही तेजी से भागने लगा है. पर चिंतन करने वाली बात ये है कि कौन जिम्मेदार है इस गुम होते बचपन के लिए? अभी दो तीन दिन पहले ही सुना कि प्रदुम्न की हत्या का शक उसी के स्कूल में पढ़ने वाले ग्यारहवीं के एक बच्चे पर है. CBI के अनुसार उस ग्यारहवीं के बच्चे ने प्रदुम्न की हत्या इसलिए की ताकि परीक्षाएं टल जाए. सोच कर ही डर लगता है कि मात्र ग्यारहवीं का छात्र किसी ही हत्या के बारे में सोच भी कैसे सकता है? जहा प्रदुम्न का बचपन अभी भी अबोध ही था, उस ग्यारहवीं के बच्चे का बचपन भी अभी ख़त्म नहीं हुआ था. पर "बच्चे मन के सच्चे" को मित्थ्या साबित कर इस घटना ने मुझे आगे आने वाले समय के लिए और भी शंकित कर दिया है.
बच्चे कोमल मिट्टी के जैसे होते है, उन्हें जैसा ढालो वैसे ही ढल जाते है. मुझे अब इस कहावत पर भी शंका सी होने लगी है. आज के युग के हर माता पिता की यही इक्षा होती है कि उनके बच्चे अच्छा पढ़े और अच्छी जिंदगी जिए. जिसके लिए वो बच्चो को बेतहाशा सुविधाएं मुहैया करवा रहे हैं. पर कही न कही इन सुविधाओं का उपयोग कम, दुरूपयोग ज्यादा हो रहा है. नेट पर जो कुछ उपलब्ध है, वह किसी भी बच्चे को कभी भी परिपक्व बना सकता है. हो सकता है कि प्रतिस्पर्धा के चलते कुछ माता पिता बच्चो पर जरुरत से ज्यादा दबाव बना रहे हो. पर मुझे पूरा विश्वास है कि कोई अपने बच्चे को किसी की जान लेना नहीं सिखाता. मैं समझ नहीं पा रही हूँ कि क्यों बच्चे इतने अमानवीय हो रहे हैं..
बचपन को तरासने में अभिभावकों के बाद, सबसे ज्यादा जिम्मेदारी है शिक्षकों की मानी जाती है. पर कहा आजकल शिक्षक बच्चो पर ध्यान दे रहे हैं!! बच्चो का बचपन छीनने में वो भी बराबर के भागीदार हैं. उन्होंने बच्चो को अपनी अतृप्त इच्छाओं को पूरा करने के माध्यम बना लिया हैं. ३ साल की बच्ची से स्कूल में ही रेप की घटना और क्या दर्शाती हैं!! घिन आती हैं ऐसे शिक्षकों पर जिन्होंने इस ईस्वरीय पद की गरिमा को मिट्टी में मिला दिया और सबसे ज्यादा नुकसान बच्चो को हुआ जो इतनी छोटी सी उम्र में रेप जैसी घटना से गुजरे. ऐसे अपराध समय से पहले बच्चो के मन की उड़ान को रोक देते हैं, उनके पंख तोड़ देते हैं जो खुले आसमान में उड़ने के लिए बने होते हैं.
समाज का बाज़ारीकरण हम सबको ही प्रभावित कर रहा हैं. पर वो सबसे ज्यादा बचपन को घूमिल कर रहा हैं. अब बच्चे छोटी जरूरतों से आगे बढ़ कर बड़ी-बड़ी मांगे करते हैं. जहाँ हम त्योहारों में अच्छा खाना खा कर खुश हो जाते थे अपने बचपन में, वही आज कल बच्चे रोज के टिफ़िन में भी मन पसंद चीजों की उम्मीद करते हैं. ये तेज़ी से भागती दुनिया बच्चो को जरूरत से ज्यादा समझदार बना रही हैं. वो समय से पहले ही चीजे सीख रहे हैं. स्कूल जाने से पहले ही बच्चे काफी कुछ लिखना पढ़ना जान लेते हैं. स्कूल में बच्चे सिर्फ पढाई नहीं, डांस, म्यूजिक, कंप्यूटर, स्पोर्ट्स और ना जाने क्या क्या जान रहे हैं. स्कूल के बाद कॉलेज बस अच्छी नौकरी और बढ़िया सैलेरी के सपने दिखा रहे हैं. बच्चो में समझदारी की होड़ सी लग गई हो जैसे. मेरी समस्या यह नहीं है कि बच्चे इतने समझदार क्यों है बल्कि इतनी जल्दी क्यों है? बचपन का मतलब ही होता हैं गंभीरता कम और मस्ती ज्यादा, बोझ कम और सहयोग ज्यादा, डांट कम और प्यार ज्यादा. पर आज कल ये संतुलन बिगड़ रहा हैं. और बचपन एक बार गया तो वापस नहीं आता. जिंदगी का शायद सबसे सुनहरा अध्याय यही है. किसी ने सच ही कहा हैं..
एक बचपन का जमाना था, जिस में खुशियों का खजाना था..
चाहत चाँद को पाने की ना थी, पर दिल तितली का दिवाना था..
क्या आपको नहीं लगता कि समय के साथ बचपन सिकुड़ता जा रहा है? जरा अपना बचपन याद करके देखिये..
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(गाय मीन्स काऊ (cow) - नई पीढ़ी की सीख)
कल TV पर एक शो देख रही थी. एक ७ साल की बच्ची ने कहा कि वो बड़े होकर ऑस्ट्रोनोट बनना चाहती हैं. मुझे तो इस उम्र तक शायद ये भी नहीं पता था कि अंतरिक्ष में लोग जा भी सकते हैं. बच्चे समय से पहले ही बड़े हो रहे है आज कल. पिछली पीढ़ी जिन बातों के बारे में पंद्रह-सोलह की उम्र में सोचती थी, उन बातों के बारे में नई पीढ़ी दस-ग्यारह में ही रूबरू होने लगी है. बच्चो की किताबे और दिन ब दिन बढ़ती प्रतिस्पर्धा को देख कर लगता है कि अब समय भी ज्यादा ही तेजी से भागने लगा है. पर चिंतन करने वाली बात ये है कि कौन जिम्मेदार है इस गुम होते बचपन के लिए? अभी दो तीन दिन पहले ही सुना कि प्रदुम्न की हत्या का शक उसी के स्कूल में पढ़ने वाले ग्यारहवीं के एक बच्चे पर है. CBI के अनुसार उस ग्यारहवीं के बच्चे ने प्रदुम्न की हत्या इसलिए की ताकि परीक्षाएं टल जाए. सोच कर ही डर लगता है कि मात्र ग्यारहवीं का छात्र किसी ही हत्या के बारे में सोच भी कैसे सकता है? जहा प्रदुम्न का बचपन अभी भी अबोध ही था, उस ग्यारहवीं के बच्चे का बचपन भी अभी ख़त्म नहीं हुआ था. पर "बच्चे मन के सच्चे" को मित्थ्या साबित कर इस घटना ने मुझे आगे आने वाले समय के लिए और भी शंकित कर दिया है.
बच्चे कोमल मिट्टी के जैसे होते है, उन्हें जैसा ढालो वैसे ही ढल जाते है. मुझे अब इस कहावत पर भी शंका सी होने लगी है. आज के युग के हर माता पिता की यही इक्षा होती है कि उनके बच्चे अच्छा पढ़े और अच्छी जिंदगी जिए. जिसके लिए वो बच्चो को बेतहाशा सुविधाएं मुहैया करवा रहे हैं. पर कही न कही इन सुविधाओं का उपयोग कम, दुरूपयोग ज्यादा हो रहा है. नेट पर जो कुछ उपलब्ध है, वह किसी भी बच्चे को कभी भी परिपक्व बना सकता है. हो सकता है कि प्रतिस्पर्धा के चलते कुछ माता पिता बच्चो पर जरुरत से ज्यादा दबाव बना रहे हो. पर मुझे पूरा विश्वास है कि कोई अपने बच्चे को किसी की जान लेना नहीं सिखाता. मैं समझ नहीं पा रही हूँ कि क्यों बच्चे इतने अमानवीय हो रहे हैं..
बचपन को तरासने में अभिभावकों के बाद, सबसे ज्यादा जिम्मेदारी है शिक्षकों की मानी जाती है. पर कहा आजकल शिक्षक बच्चो पर ध्यान दे रहे हैं!! बच्चो का बचपन छीनने में वो भी बराबर के भागीदार हैं. उन्होंने बच्चो को अपनी अतृप्त इच्छाओं को पूरा करने के माध्यम बना लिया हैं. ३ साल की बच्ची से स्कूल में ही रेप की घटना और क्या दर्शाती हैं!! घिन आती हैं ऐसे शिक्षकों पर जिन्होंने इस ईस्वरीय पद की गरिमा को मिट्टी में मिला दिया और सबसे ज्यादा नुकसान बच्चो को हुआ जो इतनी छोटी सी उम्र में रेप जैसी घटना से गुजरे. ऐसे अपराध समय से पहले बच्चो के मन की उड़ान को रोक देते हैं, उनके पंख तोड़ देते हैं जो खुले आसमान में उड़ने के लिए बने होते हैं.
समाज का बाज़ारीकरण हम सबको ही प्रभावित कर रहा हैं. पर वो सबसे ज्यादा बचपन को घूमिल कर रहा हैं. अब बच्चे छोटी जरूरतों से आगे बढ़ कर बड़ी-बड़ी मांगे करते हैं. जहाँ हम त्योहारों में अच्छा खाना खा कर खुश हो जाते थे अपने बचपन में, वही आज कल बच्चे रोज के टिफ़िन में भी मन पसंद चीजों की उम्मीद करते हैं. ये तेज़ी से भागती दुनिया बच्चो को जरूरत से ज्यादा समझदार बना रही हैं. वो समय से पहले ही चीजे सीख रहे हैं. स्कूल जाने से पहले ही बच्चे काफी कुछ लिखना पढ़ना जान लेते हैं. स्कूल में बच्चे सिर्फ पढाई नहीं, डांस, म्यूजिक, कंप्यूटर, स्पोर्ट्स और ना जाने क्या क्या जान रहे हैं. स्कूल के बाद कॉलेज बस अच्छी नौकरी और बढ़िया सैलेरी के सपने दिखा रहे हैं. बच्चो में समझदारी की होड़ सी लग गई हो जैसे. मेरी समस्या यह नहीं है कि बच्चे इतने समझदार क्यों है बल्कि इतनी जल्दी क्यों है? बचपन का मतलब ही होता हैं गंभीरता कम और मस्ती ज्यादा, बोझ कम और सहयोग ज्यादा, डांट कम और प्यार ज्यादा. पर आज कल ये संतुलन बिगड़ रहा हैं. और बचपन एक बार गया तो वापस नहीं आता. जिंदगी का शायद सबसे सुनहरा अध्याय यही है. किसी ने सच ही कहा हैं..
एक बचपन का जमाना था, जिस में खुशियों का खजाना था..
चाहत चाँद को पाने की ना थी, पर दिल तितली का दिवाना था..
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