गणतंत्र बने ६७ साल हो गए है पर एक आज भी इस देख की स्त्री अपनी रचनात्मकता और बुद्धिमत्ता को दुनिया को दिखाने के बजाय खुद को बचाने में लगी है. वो रचनात्मकता जिसने इतिहास में भी कुछ पन्ने सिर्फ स्त्रियों के नाम किए है. वही रचनात्मकता आज स्त्रियों अपने आप को सड़को पर फिरने वाले मनचलो और घरो में रहने वाले रिश्तेदारो से बचाने में काम आ रही है. ६७ साल बहुत होते है किसी देश में बदलाव के लिए फिर भी स्त्रियों की दशा क्यों नही बदल पाई है जैसा हमारे संविधान में लिखा है? हर साल हम गणतंत्र-दिवस मनाने में लाखो रूपए खर्च कर रहे है पर वो पैसे स्त्रियों के लिए एक सुरखित देश बनाने में क्यों नही लगाए जा रहे है? पर सबसे बड़ा सवाल ये है की आज भी हम संविधान के पूरी तरह से लागू होने का इंतज़ार कर रहे है ऐसा क्यों है?
हमारे देख में आज भी कुछ लोगो के संविधान जैसी कोई चीज नही है. गरीबो, बाल मजदूरो और आदिवासियों का कोई पक्का संविधान नही है. स्त्रियों के लिए है तो भी वो मानने वाले कम ही है. इस विशाल गणतंत्र की चमक में हम स्त्रियों की आभा को किसने और कितना स्वीकारा है ये दिन रात हो रही घटनाओ से पता ही चल जाता है. आज भी जिन परिवारों में स्त्रियां सिर्फ घर का काम संभालती हैं उनको कोई खास सम्मान नही मिलता. उनके बच्चे अच्छी पढाई करके बड़े बड़े पदों पर है पर उनके सफल होने का श्रेय वो नही ले पाती. ऐसे घरो में पति बिना किसी बाधा के अपने काम पर जाते है क्योंकि बाकी कामो के लिए पत्निया घर पर है. पर वो उनको अपनी सफलता का कारन क्यों नही मानते? जो स्त्रियां काम कर रही है उनको छमता से ज्यादा अपना शरीर गलाना पड़ रहा है. वो खुल कर मदद भी नही मांग पाती. स्त्रियां न घर में सुरक्षित है और न बाहर. न बाहर उन्हें कोई ज्यादा गंभीरता से लेता है और न घर में. हाँ संविधान में जरूर है कुछ न कुछ है हर स्तिथि के लिए. पर ये जवानी से बुढ़ापे की ओर जाता गणतंत्र उन असंख्य महिलाओं को यह भरोसा क्यों नहीं दिला पाया कि इस सबसे बड़े लोकतंत्र के स्थायित्व की नींव में उनकी ही सहनशक्ति है? इस विशाल गणतंत्र घरेलू स्त्रियां कब तक आभा हीन रहेगी? कब तक दुनिया की सबसे तेज़ी से आगे बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था में कामकाजी स्त्रियां का श्रम बाकी पुरुषो के पीछे छुपता रहेगा?
निःसंदेह बहुत सी वजहें हैं जिनके लिए स्त्रियों की इस गणतंत्र का धन्यवाद देना चाहिए. अब उन्हें बेहतर पढ़ने के मौके मिल रहे है. वो जिस व्यक्तिगत आजादी को जी रही है वो इतिहास में बस एक सपना थी. हर तरह के शोषण से निपटने के लिए तमाम तरह के सख्त कानून हमारे लिए बने हैं. लेकिन इतने सारे सोने के सिक्के जैसे कानून हाथ में होने के बावजूद भी हम जीवन के बहुत से क्षेत्रों में अभी भी बहुत कंगाल हैं. स्त्रियां सिर्फ चमक दमक वाले शहरो में नही रहती. वो गांव और कस्बो में भी है जहा अभी भी जमाना बहुत पीछे है. हमें लिखित अधिकार तो दे दिए गए है पर उन अधिकारों पर अंकुश लगाने वाले और पचासों काम होने लगे है. भ्रूण हत्या, दहेज हत्या, बलात्कार, जबरन वैश्यावृत्ति, छेड़खानी, यौन शोषण का तेजी से बढ़ता ग्राफ हमारा जीना नरक बना रहा है. हम सहम कर जी रहे है कि कब कौन कहा हमें अपने शिकार बना लेगा. हमारी दिमागी ताकत का बड़ा हिस्सा इस ‘बचने‘ की जुगत सोचते जाने में ही खर्च हो जाता है. यह इस देश और गणतंत्र की बहुत बड़ी ‘क्षति‘ है जिसकी पूर्ति तब तक संभव नहीं जब तक ये संविधान लिखी बातें सच में लागू नही होगी. पर ये इंतज़ार तब तक ?
हमारे देख में आज भी कुछ लोगो के संविधान जैसी कोई चीज नही है. गरीबो, बाल मजदूरो और आदिवासियों का कोई पक्का संविधान नही है. स्त्रियों के लिए है तो भी वो मानने वाले कम ही है. इस विशाल गणतंत्र की चमक में हम स्त्रियों की आभा को किसने और कितना स्वीकारा है ये दिन रात हो रही घटनाओ से पता ही चल जाता है. आज भी जिन परिवारों में स्त्रियां सिर्फ घर का काम संभालती हैं उनको कोई खास सम्मान नही मिलता. उनके बच्चे अच्छी पढाई करके बड़े बड़े पदों पर है पर उनके सफल होने का श्रेय वो नही ले पाती. ऐसे घरो में पति बिना किसी बाधा के अपने काम पर जाते है क्योंकि बाकी कामो के लिए पत्निया घर पर है. पर वो उनको अपनी सफलता का कारन क्यों नही मानते? जो स्त्रियां काम कर रही है उनको छमता से ज्यादा अपना शरीर गलाना पड़ रहा है. वो खुल कर मदद भी नही मांग पाती. स्त्रियां न घर में सुरक्षित है और न बाहर. न बाहर उन्हें कोई ज्यादा गंभीरता से लेता है और न घर में. हाँ संविधान में जरूर है कुछ न कुछ है हर स्तिथि के लिए. पर ये जवानी से बुढ़ापे की ओर जाता गणतंत्र उन असंख्य महिलाओं को यह भरोसा क्यों नहीं दिला पाया कि इस सबसे बड़े लोकतंत्र के स्थायित्व की नींव में उनकी ही सहनशक्ति है? इस विशाल गणतंत्र घरेलू स्त्रियां कब तक आभा हीन रहेगी? कब तक दुनिया की सबसे तेज़ी से आगे बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था में कामकाजी स्त्रियां का श्रम बाकी पुरुषो के पीछे छुपता रहेगा?
निःसंदेह बहुत सी वजहें हैं जिनके लिए स्त्रियों की इस गणतंत्र का धन्यवाद देना चाहिए. अब उन्हें बेहतर पढ़ने के मौके मिल रहे है. वो जिस व्यक्तिगत आजादी को जी रही है वो इतिहास में बस एक सपना थी. हर तरह के शोषण से निपटने के लिए तमाम तरह के सख्त कानून हमारे लिए बने हैं. लेकिन इतने सारे सोने के सिक्के जैसे कानून हाथ में होने के बावजूद भी हम जीवन के बहुत से क्षेत्रों में अभी भी बहुत कंगाल हैं. स्त्रियां सिर्फ चमक दमक वाले शहरो में नही रहती. वो गांव और कस्बो में भी है जहा अभी भी जमाना बहुत पीछे है. हमें लिखित अधिकार तो दे दिए गए है पर उन अधिकारों पर अंकुश लगाने वाले और पचासों काम होने लगे है. भ्रूण हत्या, दहेज हत्या, बलात्कार, जबरन वैश्यावृत्ति, छेड़खानी, यौन शोषण का तेजी से बढ़ता ग्राफ हमारा जीना नरक बना रहा है. हम सहम कर जी रहे है कि कब कौन कहा हमें अपने शिकार बना लेगा. हमारी दिमागी ताकत का बड़ा हिस्सा इस ‘बचने‘ की जुगत सोचते जाने में ही खर्च हो जाता है. यह इस देश और गणतंत्र की बहुत बड़ी ‘क्षति‘ है जिसकी पूर्ति तब तक संभव नहीं जब तक ये संविधान लिखी बातें सच में लागू नही होगी. पर ये इंतज़ार तब तक ?
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