दुनिया बड़ी तेज़ी से बदल रही है. नई नई तकनीकों ने हमारी जिंदगी को काफी हद तक आसान कर दिया है. अब ज्यादातर लोगो के पास फ़ोन है, घर में टीवी है,कपड़े धोने के लिए वाशिंग मशीन और कम से कम किचन में मसाला पीसने के लिए मिक्सी जरूर है. इस बदले ज़माने ने ही बच्चो को बड़ा करना भी आसान कर दिया है. अब हमारे पास काफी सारी ऐसी चीजें है जिनसे हम बिना फ़िक्र छोटे बच्चो के साथ बाहर जा सकते है, ट्रेन और हवाई जहाज में यात्रा कर सकते है और यह तक कि रोड ट्रिप पर भी जा सकते है.
इस बदलते हुए ज़माने का एहसास मुझे तब ज्यादा हुआ जब मैं पिछले हफ्ते अपने पैतृक घर जाने के लिए ट्रेन पकड़ने रेलवे स्टेशन पहुंची. वैसे मेरा ट्रेनों से आना जाना पिछले १० सालों से जारी है पर काफी समय के बाद मैंने आस पास की चीजों पर गौर किया. आम तौर पर मैं दिल्ली से अपने पैतृक शहर जाने के लिए एक ही ट्रेन में रिजर्वेशन लेती हूँ. वो ट्रेन दिल्ली से वही तक जाती है और कम दूरी की ट्रेन होने की वजह से लेट भी बहुत कम ही होती है. पर इस बार जब मेरे पतिदेव रिजर्वेशन करवाने चले तो देखा कि ट्रेन कैंसिल थी जब हमे जाना था. मजबूरन हमे एक दूसरी ट्रेन में रिजर्वेशन लेना पड़ा जो दिल्ली से बनारस तक जाती है. इस ट्रेन से हमने पहले कभी यात्रा नहीं की थी.
जिस दिन जाना था ये पता चला कि ट्रेन २ घंटे लेट है इसलिए हम घर से उसी हिसाब से निकल कर स्टेशन पहुंचे. वहाँ जाकर फिर से पता चला कि ट्रेन और भी लेट है और ९ बजे रात तक आएगी, कहाँ तो उसका चलने का समय ४.३० शाम का था. खैर, क्या कर सकते थे वही प्लॅटफॉम पर इंतज़ार करने लगे. मेरे साथ मेरा साढ़े ३ साल का बेटा भी था. इस उर्म के बच्चो को एक जगह बैठना पसंद नहीं होता. वो भाग दौड़ करना पसंद करते है. नहीं तो फिर उन्हें फ़ोन चाहिए YouTube देखने के लिए. थोड़ी देर तो मैं बेटे को संभाल पाई पर फिर हार कर उसे फ़ोन दे दिया. बगल में पतिदेव भी अपने फ़ोन पर लग गए. सिर्फ मैं खाली थी, पापा और बेटा दोनों अपने अपने हाथो में फ़ोन लिए उसी में खो गए थे.
मैं ऊब कर इधर उधर ताकने लगी. जो लोग प्लेटफार्म पर थे उन्हें ही देखने लगी. रेलवे स्टेशन पर शायद ही कभी भीड़ कम मिले पर फिर भी उस दिन थोड़ी भीड़ कम थी तो मैं अपनी जगह से बैठे बैठे काफी दूर तक लोगो को देख पा रही थी. स्टेशन पर हर तबके के लोग होते है, वो जो AC में सफर करते है और वो भी जो जनरल में सीट पाने के लिए जद्दोजहद करते है. स्टेशन पर कई सारे ऐसे लोग थे जिनके पास छोटे बच्चे थे. छोटे मतलब १ साल से कम. बच्चे ज्यादातर माओ की गोद में ही थे. पर बदलता जमाना तब दिखा जब मैंने एक पिता को अपनी बेटी को बोतल से दूध पिलाते देखा. बेटी इसलिए लगा क्युकी बच्चे ने एक सुन्दर सी ऊन की बनी फ्रॉक पहनी थी. बच्ची पापा की गोद में थी और माँ बगल में बैठी थी. देख कर अच्छा लगा. कहाँ तो छोटे बच्चे माँ की ही जिम्मेदारी होते थे पर बदलते ज़माने के साथ ये दस्तूर भी बदल रहा है.
फिर एक और परिवार दिखा, एक छोटा बच्चा और माता पिता. बच्चा जोरो से रो रहा था और माँ उसे चुप करवाने की कोशिश कर रही थी. थोड़ी देर बाद माँ पिता को बच्चा दे देती है और वो टहल टहल कर बच्चे को चुप करवाने की कोशिश करने लगता है. पर बच्चा फिर भी चुप नहीं हुआ. तो थक पर पिता ने बच्चा माँ को वापस दे दिया. माँ ने कुछ इशारो में पिता से कहा और पिता ने अपने फ़ोन निकाल कर बच्चे को दिखाना शुरू कर दिया. २ मिनट में ही बच्चा चुप हो गया और फ़ोन में घूरने लगा. मुझे हंसी आई, इतने छोटे बच्चे का फ़ोन से इतना प्यार!!
फिर नज़र दूसरी तरफ दौड़ाई तो देखा एक और परिवार था छोटे बच्चे के साथ. बच्चा माँ की गोद में था और माँ उससे हंस कर बात कर रही थी. फिर माँ ने बच्चा पिता को पकड़ाया और बैग से कुछ निकालने लगी. वो डायपर थे. शायद बच्चे ने पहना हुआ डायपर ख़राब कर दिया था तो माँ डायपर बदलने जा रही थी. परिवार के पहनावे और बैगो को देख कर लगा कि ज्यादा संभ्रांत नहीं थे वो लोग. दो बड़े बड़े झोले थे और एक कम्बल का बैग था. शायद स्लीपर में जाने वाले थे वरना AC से जाने वाले उतना बड़ा कम्बल लेकर कहा चलते है! पिता ने माँ की शाल से माँ और बच्चे के सामने एक ओट बना दी और पीछे शायद माँ डायपर बदल रही थी. थोड़ी देर बाद माँ ने बच्चा फिर से पिता को दे दिया और एक पैकेट लेकर कूड़ेदान की तरफ चली. अंदाजा लगाया मैंने डायपर फेकने लगी थी. उन्हें देख कर दो बाते आई मेरे मन में. पहला तो लोगो का स्टेशन की सफाई के लिए सजग होगा. माँ ने ख़राब डायपर को कूड़ेदान में ही डाला. दूसरा कि अब डायपर निचले स्तर के परिवारों में इस्तेमाल होने लगे है.
फिर हमारे पास में ही बैठे एक परिवार पर नज़र चली गई. कई लोग थे साथ और वो भी ट्रेन का इंतज़ार कर रहे थे. उनमे एक बुजुर्ग दम्पति भी था. ऑन्टी जी के हाथ में कुरकुरे का एक पैकेट था जो वो खा रही थी. बीच बीच में साथ में बैठ अंकल जी की तरफ भी पैकेट बढ़ा देती. अंकल जी मुँह बनाते हुए एक जरा सा टुकड़ा निकालते और खा लेते. कुरकुरे जहा ऑन्टी जी का पसंदीदा लग रहा था, अंकल जी का मुँह साफ़ साफ़ बता रहा कि उन्हें वो पसंद नहीं. आज कल के समय में रेडीमेड चीजें स्टेशनो पर खूब मिलती है और लोग बनाने के झंझट से बचते हुए उन्हें लेते भी खूब है. एक जमाना था जब सब कुछ घर से लेकर चलना पड़ता था. पानी से लेकर नाश्ता और खाना भी. पुराने लोगो को आज के समय की ये रेडीमेड चीजें कम पसंद आती है और अंकल जी के भाव मुझे यही बता रहे थे.
स्टेशन पर सामान बेचने वालो को देख कर लगा अब हर कोई मार्केटिंग की क्लास ले रहा है. चिल्लाना कम और काम ज्यादा. समोसा १० का एक पर २५ के ३. बेचने वाले से लेने वाले ने कहा " एक ही दे दो वरना ज्यादा खा कर पेट ना ख़राब हो जाए.. ".समोसे वाला तपाक से बोला "पेट की दवा भी है मेरे पास, वो फ्री में दे दूंगा.. " ४-५ घंटे मज़े से गुज़रे मेरे. बदलता जमाना दिखा. छोटे बच्चे दिखे और नए युग के माता पिता भी. कुरकुरे खाने वाली ६० साल की ऑन्टी दिखी और फ़ोन में घूरता कुछ महीनो का बच्चा भी. दुनिया बड़ी तेज़ी से बदल रही है. आपको भी एहसास करना हो तो इस बार ट्रेन से जाइये कही और थोड़ा पहले स्टेशन पहुँचिये. बदला जमाना एक ही जगह दिख जाएगा..
(पहले प्रकाशित यहाँ https://www.momspresso.com/parenting/cooperation-communication-and-affection-thee-keys-of-parenting/article/badalata-jamana-dekhana-ho-to-relave-steshana-jaiye)
इस बदलते हुए ज़माने का एहसास मुझे तब ज्यादा हुआ जब मैं पिछले हफ्ते अपने पैतृक घर जाने के लिए ट्रेन पकड़ने रेलवे स्टेशन पहुंची. वैसे मेरा ट्रेनों से आना जाना पिछले १० सालों से जारी है पर काफी समय के बाद मैंने आस पास की चीजों पर गौर किया. आम तौर पर मैं दिल्ली से अपने पैतृक शहर जाने के लिए एक ही ट्रेन में रिजर्वेशन लेती हूँ. वो ट्रेन दिल्ली से वही तक जाती है और कम दूरी की ट्रेन होने की वजह से लेट भी बहुत कम ही होती है. पर इस बार जब मेरे पतिदेव रिजर्वेशन करवाने चले तो देखा कि ट्रेन कैंसिल थी जब हमे जाना था. मजबूरन हमे एक दूसरी ट्रेन में रिजर्वेशन लेना पड़ा जो दिल्ली से बनारस तक जाती है. इस ट्रेन से हमने पहले कभी यात्रा नहीं की थी.
जिस दिन जाना था ये पता चला कि ट्रेन २ घंटे लेट है इसलिए हम घर से उसी हिसाब से निकल कर स्टेशन पहुंचे. वहाँ जाकर फिर से पता चला कि ट्रेन और भी लेट है और ९ बजे रात तक आएगी, कहाँ तो उसका चलने का समय ४.३० शाम का था. खैर, क्या कर सकते थे वही प्लॅटफॉम पर इंतज़ार करने लगे. मेरे साथ मेरा साढ़े ३ साल का बेटा भी था. इस उर्म के बच्चो को एक जगह बैठना पसंद नहीं होता. वो भाग दौड़ करना पसंद करते है. नहीं तो फिर उन्हें फ़ोन चाहिए YouTube देखने के लिए. थोड़ी देर तो मैं बेटे को संभाल पाई पर फिर हार कर उसे फ़ोन दे दिया. बगल में पतिदेव भी अपने फ़ोन पर लग गए. सिर्फ मैं खाली थी, पापा और बेटा दोनों अपने अपने हाथो में फ़ोन लिए उसी में खो गए थे.
मैं ऊब कर इधर उधर ताकने लगी. जो लोग प्लेटफार्म पर थे उन्हें ही देखने लगी. रेलवे स्टेशन पर शायद ही कभी भीड़ कम मिले पर फिर भी उस दिन थोड़ी भीड़ कम थी तो मैं अपनी जगह से बैठे बैठे काफी दूर तक लोगो को देख पा रही थी. स्टेशन पर हर तबके के लोग होते है, वो जो AC में सफर करते है और वो भी जो जनरल में सीट पाने के लिए जद्दोजहद करते है. स्टेशन पर कई सारे ऐसे लोग थे जिनके पास छोटे बच्चे थे. छोटे मतलब १ साल से कम. बच्चे ज्यादातर माओ की गोद में ही थे. पर बदलता जमाना तब दिखा जब मैंने एक पिता को अपनी बेटी को बोतल से दूध पिलाते देखा. बेटी इसलिए लगा क्युकी बच्चे ने एक सुन्दर सी ऊन की बनी फ्रॉक पहनी थी. बच्ची पापा की गोद में थी और माँ बगल में बैठी थी. देख कर अच्छा लगा. कहाँ तो छोटे बच्चे माँ की ही जिम्मेदारी होते थे पर बदलते ज़माने के साथ ये दस्तूर भी बदल रहा है.
फिर एक और परिवार दिखा, एक छोटा बच्चा और माता पिता. बच्चा जोरो से रो रहा था और माँ उसे चुप करवाने की कोशिश कर रही थी. थोड़ी देर बाद माँ पिता को बच्चा दे देती है और वो टहल टहल कर बच्चे को चुप करवाने की कोशिश करने लगता है. पर बच्चा फिर भी चुप नहीं हुआ. तो थक पर पिता ने बच्चा माँ को वापस दे दिया. माँ ने कुछ इशारो में पिता से कहा और पिता ने अपने फ़ोन निकाल कर बच्चे को दिखाना शुरू कर दिया. २ मिनट में ही बच्चा चुप हो गया और फ़ोन में घूरने लगा. मुझे हंसी आई, इतने छोटे बच्चे का फ़ोन से इतना प्यार!!
फिर नज़र दूसरी तरफ दौड़ाई तो देखा एक और परिवार था छोटे बच्चे के साथ. बच्चा माँ की गोद में था और माँ उससे हंस कर बात कर रही थी. फिर माँ ने बच्चा पिता को पकड़ाया और बैग से कुछ निकालने लगी. वो डायपर थे. शायद बच्चे ने पहना हुआ डायपर ख़राब कर दिया था तो माँ डायपर बदलने जा रही थी. परिवार के पहनावे और बैगो को देख कर लगा कि ज्यादा संभ्रांत नहीं थे वो लोग. दो बड़े बड़े झोले थे और एक कम्बल का बैग था. शायद स्लीपर में जाने वाले थे वरना AC से जाने वाले उतना बड़ा कम्बल लेकर कहा चलते है! पिता ने माँ की शाल से माँ और बच्चे के सामने एक ओट बना दी और पीछे शायद माँ डायपर बदल रही थी. थोड़ी देर बाद माँ ने बच्चा फिर से पिता को दे दिया और एक पैकेट लेकर कूड़ेदान की तरफ चली. अंदाजा लगाया मैंने डायपर फेकने लगी थी. उन्हें देख कर दो बाते आई मेरे मन में. पहला तो लोगो का स्टेशन की सफाई के लिए सजग होगा. माँ ने ख़राब डायपर को कूड़ेदान में ही डाला. दूसरा कि अब डायपर निचले स्तर के परिवारों में इस्तेमाल होने लगे है.
फिर हमारे पास में ही बैठे एक परिवार पर नज़र चली गई. कई लोग थे साथ और वो भी ट्रेन का इंतज़ार कर रहे थे. उनमे एक बुजुर्ग दम्पति भी था. ऑन्टी जी के हाथ में कुरकुरे का एक पैकेट था जो वो खा रही थी. बीच बीच में साथ में बैठ अंकल जी की तरफ भी पैकेट बढ़ा देती. अंकल जी मुँह बनाते हुए एक जरा सा टुकड़ा निकालते और खा लेते. कुरकुरे जहा ऑन्टी जी का पसंदीदा लग रहा था, अंकल जी का मुँह साफ़ साफ़ बता रहा कि उन्हें वो पसंद नहीं. आज कल के समय में रेडीमेड चीजें स्टेशनो पर खूब मिलती है और लोग बनाने के झंझट से बचते हुए उन्हें लेते भी खूब है. एक जमाना था जब सब कुछ घर से लेकर चलना पड़ता था. पानी से लेकर नाश्ता और खाना भी. पुराने लोगो को आज के समय की ये रेडीमेड चीजें कम पसंद आती है और अंकल जी के भाव मुझे यही बता रहे थे.
स्टेशन पर सामान बेचने वालो को देख कर लगा अब हर कोई मार्केटिंग की क्लास ले रहा है. चिल्लाना कम और काम ज्यादा. समोसा १० का एक पर २५ के ३. बेचने वाले से लेने वाले ने कहा " एक ही दे दो वरना ज्यादा खा कर पेट ना ख़राब हो जाए.. ".समोसे वाला तपाक से बोला "पेट की दवा भी है मेरे पास, वो फ्री में दे दूंगा.. " ४-५ घंटे मज़े से गुज़रे मेरे. बदलता जमाना दिखा. छोटे बच्चे दिखे और नए युग के माता पिता भी. कुरकुरे खाने वाली ६० साल की ऑन्टी दिखी और फ़ोन में घूरता कुछ महीनो का बच्चा भी. दुनिया बड़ी तेज़ी से बदल रही है. आपको भी एहसास करना हो तो इस बार ट्रेन से जाइये कही और थोड़ा पहले स्टेशन पहुँचिये. बदला जमाना एक ही जगह दिख जाएगा..
(पहले प्रकाशित यहाँ https://www.momspresso.com/parenting/cooperation-communication-and-affection-thee-keys-of-parenting/article/badalata-jamana-dekhana-ho-to-relave-steshana-jaiye)
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