कल सम्पूर्ण विश्व के साथ भारत में भी "महिला दिवस" मनाया जाएगा. इस बार ये थोड़ा सा और खास इसलिए भी है क्युकी २०१८ में यह आयोजन अपने १०० वें वर्ष में प्रवेश कर रहा है. आधुनिक विश्व के इतिहास में सर्वप्रथम १९०८ में १५००० महिलाओं ने न्यूयॉर्क में एक विशाल रैली निकाल कर अपने काम करने के घंटों को कम करने, बेहतर तनख्वाह और वोट डालने जैसे अधिकारों के लिए अपनी लड़ाई शुरू की थी. इस आंदोलन से तत्कालीन सभ्य समाज में महिलाओं की स्थिति की हकीकत पहली बार सामने आई. और ये लड़ाई तब से चल रही है.
दुर्भाग्य की बात ये है कि १०० सालो में बहुत अंतर नहीं आया है समाज में महिलाओं की स्तिथि में. हर साल महिला दिवस पर महिलाओ की लैंगिक समानता की बात की जाती है. उसके सम्मान की बात की जाती है, उनके संवैधानिक अधिकारों की बात की जाती है और उनके प्रति बढ़ते अपराधों को रोकने की बात की जाती है. इसके बावजूद आज १०० सालों बाद भी असल में महिलाओं की स्तिथि अब भी वैसी ही है. आज भी विश्व के कई देशो में महिलाओं की हालत बेहद चिंताजनक है और दिन ब दिन महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराध, शिक्षा का अभाव और व्यवहारिक असामनता अगले कई सालो तक महिलाओं की स्तिथि सुधर ना पाने की तरफ इशारा करते है. अभी कुछ दिनों पहले ही मैंने कही पढ़ा था कि पुरुषो और महिलाओं के बीच समानता लाने में कुछ २०० साल लग सकते है. ऐसा कहने के पीछे आज के समय का परिदृश्य था.
अगर भारत की बात की जाए, तो २०१७ में लैंगिक असमानता के मामले में भारत दुनिया के १४४ देशों की सूची में १०८वें स्थान पर है जबकि २०१६ में भारत ८७ वें स्थान पर था. इसका मतलब ये हुआ कि बस १ साल में लैंगिक असमानता और बढ़ गई और भारत २१ पायदान नीचे लुढ़क गया. केवल भारत में ही महिलाएं असमानता की शिकार नहीं है, बल्कि कई विकसित देशो में भी ये असमानता है
हाल की घटनाओं को देखे तो २०१८ की आस्कर विजेता फ्रांसेस मैकडोरमेंड ने भी कुछ ऐसी असामनता के परिपेक्ष में बोला था. फ्रांसेस मैकडोरमेंड ने इन्क्लूजन राइडर्स की बात के साथ अपना भाषण ख़त्म किआ था. इन्क्लूजन राइडर्स असल में समानता के ही पक्ष में एक अनुच्छेद/ शर्त है जो हॉलीवुड में अभिनेता या अभिनेत्री रख सकते है. इन्क्लूजन राइडर्स किसी भी फिल्म में लैंगिक और जातीय समानता का सूचक है. फ्रांसेस मैकडोरमेंड बताना चाहती थी कि अभिनेताओं की तरह ही हॉलीवुड में अभिनेत्रियां भी प्रतिभासंपन्न है. इसलिए इन्क्लूजन राइडर्स के माध्यम से महिलाओं को भी बराबर का मौका और मिलना चाहिए.
जब भी महिला दिवस की बात होती है, कुछ पुरुष थोड़ा सा उखड़ जाते है. उनके अनुसार महिला दिवस का कोई मतलब ही नहीं है. ये बात तो अब एकदम साफ़ है कि पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं की स्तिथि, महिलाओं के प्रति पुरुषों की सोच में बदलाव लाए बिना सुधर नहीं सकती. क्युकी इतने सालो के बाद भी पुरुषो का महिलाओं के प्रति रवैया खास बदला नहीं है. जरूरत है कि पुरुष माने कि स्त्री और पुरुष दोनों एक दूसरे के पूरक हैं प्रतिस्पर्धी नहीं. इसलिए महिला दिवस पर पुरुषो की बात अब ज्यादा होनी चाहिए. मैंने एक लेख भी ऐसा ही पढ़ा जो ऐसी ही बात पर ज़ोर दे रहा था. लेख के अनुसार महिला दिवस की सार्थकता महिलाओं के अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता में नहीं, अपितु पुरुषों के उनके प्रति अपना नजरिया बदल कर संवेदनशील होने में है.
तो मैं चाहती हूँ कि अब से महिला दिवस पर पुरुषो को भी अच्छा मह्सूस हो. उन्हें भी सेल का फायदा मिले. वो भी अपने पसंदीदा रंग के कपडे पहन कर दिन बिताये. वो सभी पुरुष सराहे जाए जो महिलाओं के शशक्तिकरण में सहयोग देते है. पुरुषो को भी सम्मानित किया जाए उसी तरह जैसे महिलाओं को किया जाता है महिला दिवस पर. और उनके भी अपने कार्यक्रम हो जिसमे सभी पुरुष ये चिंतन करे कि महिलाओं के प्रति लड़को/पुरुषो और समाज का रवैया कैसे सुधरे. दिन तो महिला दिवस हो पर बात पुरुषो की भी हो.
(पहले प्रकाशित यहाँ : https://www.momspresso.com/parenting/cooperation-communication-and-affection-thee-keys-of-parenting/article/dina-to-mahilaom-ka-hai-para-bata-purushom-ki-hai)
This post is for #MONDAYMOMMYMOMENTS and linked with Deepa and Amrita.
दुर्भाग्य की बात ये है कि १०० सालो में बहुत अंतर नहीं आया है समाज में महिलाओं की स्तिथि में. हर साल महिला दिवस पर महिलाओ की लैंगिक समानता की बात की जाती है. उसके सम्मान की बात की जाती है, उनके संवैधानिक अधिकारों की बात की जाती है और उनके प्रति बढ़ते अपराधों को रोकने की बात की जाती है. इसके बावजूद आज १०० सालों बाद भी असल में महिलाओं की स्तिथि अब भी वैसी ही है. आज भी विश्व के कई देशो में महिलाओं की हालत बेहद चिंताजनक है और दिन ब दिन महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराध, शिक्षा का अभाव और व्यवहारिक असामनता अगले कई सालो तक महिलाओं की स्तिथि सुधर ना पाने की तरफ इशारा करते है. अभी कुछ दिनों पहले ही मैंने कही पढ़ा था कि पुरुषो और महिलाओं के बीच समानता लाने में कुछ २०० साल लग सकते है. ऐसा कहने के पीछे आज के समय का परिदृश्य था.
अगर भारत की बात की जाए, तो २०१७ में लैंगिक असमानता के मामले में भारत दुनिया के १४४ देशों की सूची में १०८वें स्थान पर है जबकि २०१६ में भारत ८७ वें स्थान पर था. इसका मतलब ये हुआ कि बस १ साल में लैंगिक असमानता और बढ़ गई और भारत २१ पायदान नीचे लुढ़क गया. केवल भारत में ही महिलाएं असमानता की शिकार नहीं है, बल्कि कई विकसित देशो में भी ये असमानता है
हाल की घटनाओं को देखे तो २०१८ की आस्कर विजेता फ्रांसेस मैकडोरमेंड ने भी कुछ ऐसी असामनता के परिपेक्ष में बोला था. फ्रांसेस मैकडोरमेंड ने इन्क्लूजन राइडर्स की बात के साथ अपना भाषण ख़त्म किआ था. इन्क्लूजन राइडर्स असल में समानता के ही पक्ष में एक अनुच्छेद/ शर्त है जो हॉलीवुड में अभिनेता या अभिनेत्री रख सकते है. इन्क्लूजन राइडर्स किसी भी फिल्म में लैंगिक और जातीय समानता का सूचक है. फ्रांसेस मैकडोरमेंड बताना चाहती थी कि अभिनेताओं की तरह ही हॉलीवुड में अभिनेत्रियां भी प्रतिभासंपन्न है. इसलिए इन्क्लूजन राइडर्स के माध्यम से महिलाओं को भी बराबर का मौका और मिलना चाहिए.
जब भी महिला दिवस की बात होती है, कुछ पुरुष थोड़ा सा उखड़ जाते है. उनके अनुसार महिला दिवस का कोई मतलब ही नहीं है. ये बात तो अब एकदम साफ़ है कि पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं की स्तिथि, महिलाओं के प्रति पुरुषों की सोच में बदलाव लाए बिना सुधर नहीं सकती. क्युकी इतने सालो के बाद भी पुरुषो का महिलाओं के प्रति रवैया खास बदला नहीं है. जरूरत है कि पुरुष माने कि स्त्री और पुरुष दोनों एक दूसरे के पूरक हैं प्रतिस्पर्धी नहीं. इसलिए महिला दिवस पर पुरुषो की बात अब ज्यादा होनी चाहिए. मैंने एक लेख भी ऐसा ही पढ़ा जो ऐसी ही बात पर ज़ोर दे रहा था. लेख के अनुसार महिला दिवस की सार्थकता महिलाओं के अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता में नहीं, अपितु पुरुषों के उनके प्रति अपना नजरिया बदल कर संवेदनशील होने में है.
तो मैं चाहती हूँ कि अब से महिला दिवस पर पुरुषो को भी अच्छा मह्सूस हो. उन्हें भी सेल का फायदा मिले. वो भी अपने पसंदीदा रंग के कपडे पहन कर दिन बिताये. वो सभी पुरुष सराहे जाए जो महिलाओं के शशक्तिकरण में सहयोग देते है. पुरुषो को भी सम्मानित किया जाए उसी तरह जैसे महिलाओं को किया जाता है महिला दिवस पर. और उनके भी अपने कार्यक्रम हो जिसमे सभी पुरुष ये चिंतन करे कि महिलाओं के प्रति लड़को/पुरुषो और समाज का रवैया कैसे सुधरे. दिन तो महिला दिवस हो पर बात पुरुषो की भी हो.
(पहले प्रकाशित यहाँ : https://www.momspresso.com/parenting/cooperation-communication-and-affection-thee-keys-of-parenting/article/dina-to-mahilaom-ka-hai-para-bata-purushom-ki-hai)
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आपने बहुतही अच्छे तरीकेसे अपनी बात राखी, महिला दिवस - यह अपने आपमें दर्शाता है की महिलाओको समाज में जो समानता का हक्क मिलना चाहिए वह नहीं मिल रहा | पुरष और स्त्री समाज रथ के दो पहिये कहा जा सकता है यदि समाजको आगे ले जाना है तो दोनों पहियों को एक साथ चलना ही होगा| जिस तरीके से आपने अपने ब्लॉग के लास्ट पेरेग्राफ में लिखा "पुरुषो को भी सम्मानित किया जाए उसी तरह जैसे महिलाओं को किया जाता है महिला दिवस पर." - यह भाव केवल और केवल एक महिलहि कर सकती है | इस महिला वर्ष के उपलक्षमें हम सबको समाज प्रगतिमें अपना सहयोग देनही चाहिए |
ReplyDeleteधन्यवाद उमेश.
DeleteBilkul sahi kaha aapne din to mahilayon Ka hai par baat purushon ki hai ....purushon ke khaas karyakrm hone chahiye jisme we Chintan Karen , kuch anpad purushon ko ikattha krke shikshit krne Ka prayaas kren , andar dil se jab tak smanta ki awaz Nahi uthegi tab tak mushkil hai
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