कैसी रही आपकी दिवाली? आशा करती हूँ अच्छी ही रही होगी.
दिल्ली वालो की बात करू तो पटाखों पर बैन था पर लोग कहा मानने वाले थे!! पटाखे चले और इतने चले की रात १० बजे से सुबह के ३ के बीच में प्रदूषण का स्तर काफी हद तक बढ़ गया.अभी तो लोगो से उम्मीद की गई थी कि पटाखों की बिक्री पर बैन के साथ वो पटाखे संतुलित तरीके से जलाने में सहयोग करेंगे. पर दुखद था कि लोग एक छोटी सी उम्मीद पर भी खरे ना उतर पाए. मैंने भी कई पोस्ट लिखे पटाखा मुक्त दिवाली के बारे में और इसके पक्ष में मुझे कम ही लोगो के कमैंट्स आए. खैर, कुछ लोगो को बातें आसानी से समझ नहीं आती. दिवाली बीत गई और हवा में जो ज़हर घुलना था घुल ही गया. पटाखों के अलावा मुझे एक और बात बड़ी खटकी इस दिवाली पर. उसी के बारे में है ये मेरा पोस्ट.
दिवाली के एक हफ्ते पहले से ही बाज़ारो में दुकाने सजने लगी. सजावट का सामान, मिठाई और लक्ष्मी गणेश की मूर्तियाँ जगह जगह मिलने लगी. दिवाली के आते ही एक बार फिर खरीददारी का जैसे मौसम आ गया हो. हर कोई सामान लेने या बेचने की बाते करने लगा. दिन भर टीवी, रेडियो पर विज्ञापन चीखते चिल्लाते रहे "यह लीजिए, वह लीजिए, अपनों के लिए यह उपहार खरीदें,वह उपहार खरीदें. और इस बाजार में मोबाइल से लेकर ज़ेवर, घर, सब कुछ है." कितने ही सेल के विज्ञापन थे और कितने ही दिवाली पर मिलने वाले लिमिटेड टाइम ऑफर्स के. पर न्यूज़ चैनेलो और राजनीतिक लेखो में बस एक ही बात थी. हाय महंगाई !! हाय नोटबंदी !! और हाय हाय GST !! कुछ लोग जी भर भर कर सरकार को कोस रहे थे. टीवी पर स्पेशल शोज आए कि कैसे नोटबंदी की वजह से बाज़ारो में वैसे रौनक नहीं है. हर छोटे दूकानदार से पूछा गया कि इस बार घंधा कैसा जा रहा है दिवाली पर और सबने एक ही स्वर में जवाब दिया. हाय नोटबंदी !! और हाय हाय GST !! फिर इसी तरह के शोज में बेचने वालो के साथ साथ ख़रीददारी करने आए लोगो से भी उनकी मन की बात की गई. "क्या खरीदने आए है..?", "जितना सोचा था उतने में ही सामान ले पा रहे है?", "GST से आपको क्या परेशानी हो रही है? " ये सब देख सुन ऐसा लग रहा है मानो अब हमारे समाज की हैसियत सिर्फ उपभोक्ता भर की रह गई है? कोई दिवाली पर कितने गरीबो की मदद करेंगे ये नहीं पूछ रहा था ? भारतीयों का सबसे बड़ा त्यौहार बाजार में कब बदल गया, क्या कभी किसी ने इस पर विचार किया?
खरीददारी हर त्यौहार का अंग होती है. लोग त्यौहार के हिसाब से नई चीजे लेते ही आए है. पर समय के साथ अपने त्यौहार सेल और खरीददारी के पर्व बनते जा रहे है. दिवाली अभी अभी बीती है तो दिवाली के सन्दर्भ में ही बाते करते है. बचपन में दिवाली पर कुछ चीजे नई आती थी और कुछ पुरानी ही इस्तेमाल होती थी. लक्ष्मी गणेश हर बार नए आते थे पर सजवाट का सामान वही पुराना ही रहता था. दिवाली के बाद सजवाट की चीजे सहेज कर रख दी जाती थी अगले साल के लिए. दीपावली का मूल भाव तो मेल-मिलाप में है, घर वापसी में है. चौदह वर्षों की प्रतीक्षा के बाद श्री राम सिया और लखन को साथ ले कर अयोध्या वापस लौटे तो पलक बिछाए चौदह वर्षों तक राम के लिए बाट जोहती अयोध्या ने उनका भव्य स्वागत किआ. जिन राम का राज्याभिषेक होने वाला था, वे राम अकारण वन वन भटके, संघर्ष किया, दुःख सहे, और विजयी हो, चौदह वर्षों बाद अपने घर लौट रहे थे तो अयोध्या वासियो ने अमावस्या की काली रात को भी जगमगा दिया. कोटि कोटि दीप जलाकर, अमावस्या का सारा अंधकार मिटा दिया. इस तरह, "दिया' अन्याय की कालिमा के विरोध का प्रतीक बन गया सदा के लिए.हमारे पुरखों ने हर पर्व के पीछे के मर्म को समझा और अगली पीढ़ी को बताया. ऐसे परम्परा पड़ी दीपावली की और दीपावली पर दिए जलाने की. समय के साथ चीजे बदलती ही है ये तो प्रकति का नियम है. तो दियो की जगह बिजली से जलने वाली लाइटों ने ले ली. और पता नहीं कैसे रौशनी के प्रतीक पटाखे बन गए. यहाँ तक भी ठीक था पर ये शोर मचाते पटाखे कैसे दीपावली का मर्म समझाते है? हम समझ नहीं पा रहे है पर धीरे धीरे दिवाली साल की सबसे बड़ी खरीददारी का समय बन रही है जब आप बाज़ारो में अथाह भीड़ देखगे. जगह जगह सेल और डिस्काउंट के विज्ञापन चल रहे होंगे. दुकानों की भीड़ को देख कर लगेगा कि कुछ फ्री में बट रहा है क्या!! मुझे तो इस बार भी बाज़ारो में भीड़ उतनी ही लगी. किसी के चेहरे पर GST से परेशान होने के भाव नहीं थे.
जब कोई त्योहार हम भारतीयों के सिर पर आ खड़ा होता है तभी हमारा महान भारतीय चरित्र भी खुल कर उजागर होने लगता है. त्योहार से पहले खाद्य विभाग के छापे पड़ने शुरू हो जाते हैं. मिलावटी खाने और मिठाई की खबरे कानो को सुन्न करने लगती है. पता नहीं क्यों कुछ लोग इतने मुनाफाखोर हो जाते है त्योहारों पर कि लोगो की जान से खेलने में भी उन्हें परहेज नहीं होता. मिलावटी घी, दूध, तेल, के साथ साथ मिलावटी खोया, बेसन और पनीर भी मिलने लगते है दुकानों में. आम जनता बस एक उपभोक्ता बन जाती है जो त्योहारों पर ऐसी चीजे लेगी ही. और हमारे भारतीय चरित्र वाले मुनाफाखोर ये भूल जाते है कि मिलावटी सामान खाने वाला आम आदमी है जो बस त्यौहार अच्छे से मानना चाहता है, अस्पताल जाना नहीं. त्योहारों पर मिलावट और मुनाफाखोरों की चांदी हो जाती है और उपभोक्ता बानी आम जनता बस झेलती है. वैसे घर में मिठाइयां कहाँ बनती है अब?? हम लोगो का मन तब मचल जाता है जब हम उन दुकानों की मिठाइयों की पैकिंग और डिब्बों को देखते हैं. कितनी आकर्षक पैकिंग! एक से एक मॉडल के डिजाइनर डिब्बे! ऐसे इस्टाइलिस गिफ्ट हैम्पर्स की जिन्हें देख कर जुबान पर ताले पड़ जाए. पहले के ज़माने में हलवाई मिठाई चखवा कर ही डब्बे पैक करते थे. उन्हें भोली जनता के स्वाद और सेहत दोनों का ख्याल भी होता था और एक दो टुकड़े फ्री में खिलाने वाला मज़बूत मन भी होता था उनके पास. आज देखिये, मिठाई चखने की बात तो बाद की, पैकिंग भी आप ज्यादा ध्यान से देख नहीं सकते. फिर जिन्होंने कहा था कि केवल हमारे यहां केवल शुद्ध देसी घी की मिठाइयां मिलती हैं, और जो चिल्ला-चिल्ला कर कह रहे थे कि नक्कालों से सावधान, उन सबके यहाँ छापा पड़ता है और नकली सामन का पता चलता है. अगर हलवाई इंटरनेशनल है तो उसके यहाँ छापा भी नहीं पड़ता. डिब्बा बंद मिठाइयों में बेसन कौन सा था आपको पता तभी चलेगा जब तबियत नासार लगने लगेगी. आज कल निजी मिठास का मूल मंत्र है, पहले लाभ, बाद में शुभ. जब लाभ होगा, तभी शुभ होगा. जहां लाभ है, वहीं शुभ है. जो लाभ दे, वही शुभ है. जहां लाभ की सम्भावना अधिकतम हो, शुद्ध वही कर्म करना शुभतम है.
सवाल मेरा वही है क्या भारत की आम जनता सिर्फ उपभोक्ता है? जिसे ये आज के दूकानदार कुछ भी बेचने की कोशिश कर रहे है. त्यौहार के पीछे के कारणों को हम भूल कर नई कहानी बना रहे है. दिवाली पर पटाखे, होली पर केमिकल वाले रंग, राखी पर सोने-चाँदी की राखियाँ, ये सब इन त्योहारों के असली मायने को धूमिल कर देते है. दिन भर उत्पादों के विज्ञापन में त्योहार का मूल भाव कहीं खो गया सा लगता है और आम जनता बस उपभोक्ता बनी चमक दमक पीछे भागने लगती है. गलती सारी आम जनता की भी नहीं है, जब त्योहारों पर सामान मिलेगा तो लोग लेंगे ही और होड़ इतनी कि अपनी सामर्थ से ज्यादा का लेंगे. इस बात को आज के व्यापारी खूब समझते है इसलिए उन्होंने त्योहारों को बाज़ारदारी का पर्व बना दिया है जब उपभोक्ता बनी आम जनता घर पर बैठ कर त्योहारों का आनंद लेने के बजाय बाज़ारो की खाक छानती रहती है.
इसे बदलना होगा. त्योहारों को उनके मूल भाव के साथ मनाइये. दिवाली पर अपने घर में रौशनी के साथ किसी गरीब के घर में भी उजाला करिये. होली पर गुलाल की रंगत लेते हुए जरूरतमंदो की कपड़ें दीजिये. और राखी पर रेशमी राखियां बांध कर अपने रिश्तो को मज़बूत कीजिये. अपनों के साथ समय बिताइए, यही उनके लिए सबसे बड़ा उपहार है. क्या रखा है दिखावे में!!
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा, जब लाद चलेगा बंजारा !!
दिल्ली वालो की बात करू तो पटाखों पर बैन था पर लोग कहा मानने वाले थे!! पटाखे चले और इतने चले की रात १० बजे से सुबह के ३ के बीच में प्रदूषण का स्तर काफी हद तक बढ़ गया.अभी तो लोगो से उम्मीद की गई थी कि पटाखों की बिक्री पर बैन के साथ वो पटाखे संतुलित तरीके से जलाने में सहयोग करेंगे. पर दुखद था कि लोग एक छोटी सी उम्मीद पर भी खरे ना उतर पाए. मैंने भी कई पोस्ट लिखे पटाखा मुक्त दिवाली के बारे में और इसके पक्ष में मुझे कम ही लोगो के कमैंट्स आए. खैर, कुछ लोगो को बातें आसानी से समझ नहीं आती. दिवाली बीत गई और हवा में जो ज़हर घुलना था घुल ही गया. पटाखों के अलावा मुझे एक और बात बड़ी खटकी इस दिवाली पर. उसी के बारे में है ये मेरा पोस्ट.
दिवाली के एक हफ्ते पहले से ही बाज़ारो में दुकाने सजने लगी. सजावट का सामान, मिठाई और लक्ष्मी गणेश की मूर्तियाँ जगह जगह मिलने लगी. दिवाली के आते ही एक बार फिर खरीददारी का जैसे मौसम आ गया हो. हर कोई सामान लेने या बेचने की बाते करने लगा. दिन भर टीवी, रेडियो पर विज्ञापन चीखते चिल्लाते रहे "यह लीजिए, वह लीजिए, अपनों के लिए यह उपहार खरीदें,वह उपहार खरीदें. और इस बाजार में मोबाइल से लेकर ज़ेवर, घर, सब कुछ है." कितने ही सेल के विज्ञापन थे और कितने ही दिवाली पर मिलने वाले लिमिटेड टाइम ऑफर्स के. पर न्यूज़ चैनेलो और राजनीतिक लेखो में बस एक ही बात थी. हाय महंगाई !! हाय नोटबंदी !! और हाय हाय GST !! कुछ लोग जी भर भर कर सरकार को कोस रहे थे. टीवी पर स्पेशल शोज आए कि कैसे नोटबंदी की वजह से बाज़ारो में वैसे रौनक नहीं है. हर छोटे दूकानदार से पूछा गया कि इस बार घंधा कैसा जा रहा है दिवाली पर और सबने एक ही स्वर में जवाब दिया. हाय नोटबंदी !! और हाय हाय GST !! फिर इसी तरह के शोज में बेचने वालो के साथ साथ ख़रीददारी करने आए लोगो से भी उनकी मन की बात की गई. "क्या खरीदने आए है..?", "जितना सोचा था उतने में ही सामान ले पा रहे है?", "GST से आपको क्या परेशानी हो रही है? " ये सब देख सुन ऐसा लग रहा है मानो अब हमारे समाज की हैसियत सिर्फ उपभोक्ता भर की रह गई है? कोई दिवाली पर कितने गरीबो की मदद करेंगे ये नहीं पूछ रहा था ? भारतीयों का सबसे बड़ा त्यौहार बाजार में कब बदल गया, क्या कभी किसी ने इस पर विचार किया?
खरीददारी हर त्यौहार का अंग होती है. लोग त्यौहार के हिसाब से नई चीजे लेते ही आए है. पर समय के साथ अपने त्यौहार सेल और खरीददारी के पर्व बनते जा रहे है. दिवाली अभी अभी बीती है तो दिवाली के सन्दर्भ में ही बाते करते है. बचपन में दिवाली पर कुछ चीजे नई आती थी और कुछ पुरानी ही इस्तेमाल होती थी. लक्ष्मी गणेश हर बार नए आते थे पर सजवाट का सामान वही पुराना ही रहता था. दिवाली के बाद सजवाट की चीजे सहेज कर रख दी जाती थी अगले साल के लिए. दीपावली का मूल भाव तो मेल-मिलाप में है, घर वापसी में है. चौदह वर्षों की प्रतीक्षा के बाद श्री राम सिया और लखन को साथ ले कर अयोध्या वापस लौटे तो पलक बिछाए चौदह वर्षों तक राम के लिए बाट जोहती अयोध्या ने उनका भव्य स्वागत किआ. जिन राम का राज्याभिषेक होने वाला था, वे राम अकारण वन वन भटके, संघर्ष किया, दुःख सहे, और विजयी हो, चौदह वर्षों बाद अपने घर लौट रहे थे तो अयोध्या वासियो ने अमावस्या की काली रात को भी जगमगा दिया. कोटि कोटि दीप जलाकर, अमावस्या का सारा अंधकार मिटा दिया. इस तरह, "दिया' अन्याय की कालिमा के विरोध का प्रतीक बन गया सदा के लिए.हमारे पुरखों ने हर पर्व के पीछे के मर्म को समझा और अगली पीढ़ी को बताया. ऐसे परम्परा पड़ी दीपावली की और दीपावली पर दिए जलाने की. समय के साथ चीजे बदलती ही है ये तो प्रकति का नियम है. तो दियो की जगह बिजली से जलने वाली लाइटों ने ले ली. और पता नहीं कैसे रौशनी के प्रतीक पटाखे बन गए. यहाँ तक भी ठीक था पर ये शोर मचाते पटाखे कैसे दीपावली का मर्म समझाते है? हम समझ नहीं पा रहे है पर धीरे धीरे दिवाली साल की सबसे बड़ी खरीददारी का समय बन रही है जब आप बाज़ारो में अथाह भीड़ देखगे. जगह जगह सेल और डिस्काउंट के विज्ञापन चल रहे होंगे. दुकानों की भीड़ को देख कर लगेगा कि कुछ फ्री में बट रहा है क्या!! मुझे तो इस बार भी बाज़ारो में भीड़ उतनी ही लगी. किसी के चेहरे पर GST से परेशान होने के भाव नहीं थे.
जब कोई त्योहार हम भारतीयों के सिर पर आ खड़ा होता है तभी हमारा महान भारतीय चरित्र भी खुल कर उजागर होने लगता है. त्योहार से पहले खाद्य विभाग के छापे पड़ने शुरू हो जाते हैं. मिलावटी खाने और मिठाई की खबरे कानो को सुन्न करने लगती है. पता नहीं क्यों कुछ लोग इतने मुनाफाखोर हो जाते है त्योहारों पर कि लोगो की जान से खेलने में भी उन्हें परहेज नहीं होता. मिलावटी घी, दूध, तेल, के साथ साथ मिलावटी खोया, बेसन और पनीर भी मिलने लगते है दुकानों में. आम जनता बस एक उपभोक्ता बन जाती है जो त्योहारों पर ऐसी चीजे लेगी ही. और हमारे भारतीय चरित्र वाले मुनाफाखोर ये भूल जाते है कि मिलावटी सामान खाने वाला आम आदमी है जो बस त्यौहार अच्छे से मानना चाहता है, अस्पताल जाना नहीं. त्योहारों पर मिलावट और मुनाफाखोरों की चांदी हो जाती है और उपभोक्ता बानी आम जनता बस झेलती है. वैसे घर में मिठाइयां कहाँ बनती है अब?? हम लोगो का मन तब मचल जाता है जब हम उन दुकानों की मिठाइयों की पैकिंग और डिब्बों को देखते हैं. कितनी आकर्षक पैकिंग! एक से एक मॉडल के डिजाइनर डिब्बे! ऐसे इस्टाइलिस गिफ्ट हैम्पर्स की जिन्हें देख कर जुबान पर ताले पड़ जाए. पहले के ज़माने में हलवाई मिठाई चखवा कर ही डब्बे पैक करते थे. उन्हें भोली जनता के स्वाद और सेहत दोनों का ख्याल भी होता था और एक दो टुकड़े फ्री में खिलाने वाला मज़बूत मन भी होता था उनके पास. आज देखिये, मिठाई चखने की बात तो बाद की, पैकिंग भी आप ज्यादा ध्यान से देख नहीं सकते. फिर जिन्होंने कहा था कि केवल हमारे यहां केवल शुद्ध देसी घी की मिठाइयां मिलती हैं, और जो चिल्ला-चिल्ला कर कह रहे थे कि नक्कालों से सावधान, उन सबके यहाँ छापा पड़ता है और नकली सामन का पता चलता है. अगर हलवाई इंटरनेशनल है तो उसके यहाँ छापा भी नहीं पड़ता. डिब्बा बंद मिठाइयों में बेसन कौन सा था आपको पता तभी चलेगा जब तबियत नासार लगने लगेगी. आज कल निजी मिठास का मूल मंत्र है, पहले लाभ, बाद में शुभ. जब लाभ होगा, तभी शुभ होगा. जहां लाभ है, वहीं शुभ है. जो लाभ दे, वही शुभ है. जहां लाभ की सम्भावना अधिकतम हो, शुद्ध वही कर्म करना शुभतम है.
सवाल मेरा वही है क्या भारत की आम जनता सिर्फ उपभोक्ता है? जिसे ये आज के दूकानदार कुछ भी बेचने की कोशिश कर रहे है. त्यौहार के पीछे के कारणों को हम भूल कर नई कहानी बना रहे है. दिवाली पर पटाखे, होली पर केमिकल वाले रंग, राखी पर सोने-चाँदी की राखियाँ, ये सब इन त्योहारों के असली मायने को धूमिल कर देते है. दिन भर उत्पादों के विज्ञापन में त्योहार का मूल भाव कहीं खो गया सा लगता है और आम जनता बस उपभोक्ता बनी चमक दमक पीछे भागने लगती है. गलती सारी आम जनता की भी नहीं है, जब त्योहारों पर सामान मिलेगा तो लोग लेंगे ही और होड़ इतनी कि अपनी सामर्थ से ज्यादा का लेंगे. इस बात को आज के व्यापारी खूब समझते है इसलिए उन्होंने त्योहारों को बाज़ारदारी का पर्व बना दिया है जब उपभोक्ता बनी आम जनता घर पर बैठ कर त्योहारों का आनंद लेने के बजाय बाज़ारो की खाक छानती रहती है.
इसे बदलना होगा. त्योहारों को उनके मूल भाव के साथ मनाइये. दिवाली पर अपने घर में रौशनी के साथ किसी गरीब के घर में भी उजाला करिये. होली पर गुलाल की रंगत लेते हुए जरूरतमंदो की कपड़ें दीजिये. और राखी पर रेशमी राखियां बांध कर अपने रिश्तो को मज़बूत कीजिये. अपनों के साथ समय बिताइए, यही उनके लिए सबसे बड़ा उपहार है. क्या रखा है दिखावे में!!
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा, जब लाद चलेगा बंजारा !!
Bahut achha likha aapne sach materialism itna zyada ho gya hai aajkal ki life me .....kayi aise log hain jinse saal bhar baat nhi hoti aur sirf diwali par bas ek duje ko gifts dene ki parampara hai ...kya rakha hai aise dikhave me ....
ReplyDeleteThank you blog padhne ke liye aur mere message ko samjhne ke liye Monika.
Delete