अभी
हाल की घटनाओ ने
हम भारतीयों का विश्वास ही
हिला कर रख दिया
है आध्यात्म पर से. संत
और बाबाओ के एक -एक
करके काले कारनामे बाहर
आ रहे है. और
सबसे ज्यादा दुखद है कि
इन जाली बाबाओ ने
हमारी सभ्यता के मूल को
हिला कर रख दिया
है. हमारा देश तो जाना
ही जाता था आध्यात्म
की नगरी. यहां की आध्यात्मिक
जमीन तो इतनी उर्वर
थी कि वेदो और
उपनिषद् के ऋषियों से
लेकर बुद्ध, महावीर, शंकराचार्य, तिरुवल्लुवर, कबीर, रैदास और नानक और
उनके बाद तक संतों
और फकीरों ने यहां के
समाज को समय-समय
पर सच्चे मानवीय जीवन की राह
दिखाई. उसी परम्परा के
पीछे पीछे चलते चलते
हम आज भी गुरु
बनाने में विश्वास करते
है और गुरु से
अपेक्षा रखते है कि
वो हमें सही रास्ता
दिखाए जब भी जरूत
हो. पर क्या कहे,
भारत को भारत ना
रहने देने के कारणों
में एक और शामिल
हो गया, भ्रस्ट संत
और महात्मा!
फिर
सवाल उठता है क्यों
बनाते है हम गुरु
आज भी और क्यों
आजकल भी संत-महात्माओं
का उदय होता है?
हम २१वी सदी में
है. तमाम तरह के
साधनो ने घिरे, विज्ञानं
की भाषा बोलने वाले
और तथ्यों पर विश्वाश करने
वाले हम आज भी
क्यों इन बाबाओ की
चक्कर में पड़ जाते
है?
मुझे
लगता है जितना हम
तकनीकी सुविधाओं से घिर गए
उतना ही हमारा जीवन
जटिल हो गया. अब
की लोगो को तमाम
तरह कि शारीरिक, मानसिक,
सामाजिकऔर नैतिक समस्याएं है जिनका हल
ढूढ़ने की लिए लोग
परेशान है. और असल
में ऐसी समस्याओं का
समाधान कहीं भी नहीं
मिल पाता, ना किताबो में
और ना कहानियो में.
तो लोगो की मन
में अस्तित्ववादी सवाल उठने लगते
हैं. उन्हें लगता है अब
उन्हें कोई ऐसा चाहिए
जो उसकी समस्या को
समझे भी और हल
भी बताये. ऐसी परिस्थिति में
कुछ ऐसे विकल्प रहते
हैं जो शहरी-ग्रामीण,
साक्षर-निरक्षर सबके लिए सुलभ
और एकसमान लागू होने वाले
होते है और लोग
ऐसे ही विकल्पों की
पीछे अपना पूरी श्रध्दा
लगा देते है.
पहला,
जैसे कि वे किसी
ऐसे ईश्वर को अपनी पूजा-अर्चना, मान-मनौती, चढ़ावा-प्रसाद से प्रसन्न कर
दें, जो इन चढ़ावों
या टोने-टोटकों से
खुश होकर उनकी हर
छोटी-बड़ी मनौतियों को
पूरा करता हो. बस
इसी का फायदा ये
बाबा और पुजारी जैसे
लोग उठाते है. खुद को
भगवान का भेजा हुआ
सहायक बता कर लोगो
को उनकी समस्याओ की
लिए कोई ना कोई
नुस्खा बता देते है.
और खुद भी अच्छी
दान-दक्षिणा लेने में जरा
भी नहीं हिचकते. दूसरा,
लोग सोचते है उनका भाग्य
ख़राब है और अगर
किसी तरह से वो
भाग्यवादी हो जाए तो
उनके अतीत के दुख,
वर्तमान की निराशा और
भविष्य की असुरक्षा सब
दूर हो जाएगे. वो
कहते है ना ‘मुकद्दर
का सिकंदर’ वही बनना चाहते
है ज्यादातर लोग. और फिर
बस शुरू हो जाता
है ग्रह-नक्षत्र और
कुंडली का चक्कर. हम
में से काफी लोग
अपनी जीवन-परिस्थितियों या
आदतों में अपनी मेहनत
से ठोस परिवर्तन करने
के बजाय किसी ज्योतिषी
या रत्नों-अंगूठियों के चक्कर में
पड़ जाते है. एक
और विकल्प होता है कि
लोग किसी ऐसे राजनीतिक
आदमी को मसीहा के
रूप में देखने लगते
है जो सत्ता में
आते ही उसकी सारी
समस्याओं का समाधान कर
देने का वादा करता
है. ऐसे ही जन्म
होता है नेताओ का
हमारे देश में जो
बाद में तरह तरह
की भ्रष्टाचारों में मिले पाए
जाते है.
कुछ
महान लोग इन तीनो
का मिला जुला अवतार
लेते है और
बन जाते है आज
के मॉडर्न संत जो एक
तरफ खुद को ईश्वर
का प्रतिनिधि या स्वयं ईश्वर
होने का दावा करने
लगते है. वही दूसरी
तरफ फिल्मो और गानो में
हीरो बन जाते है.
वो सब नैतिक-अनैतिक
स्रोतों से रूपये जुटाकर
स्कूल, अस्पताल और लंगर-भंडारा
चलाने के साथ साथ,अपनी काली कमाई
से आलीशान बंगले बनवाते रहते है. वो
हर तरह के अपराधों
में घुस जाते है और राजनीती में भी सक्रीय रहते है.
सबसे घृणित बात कि ऐसे
संत महात्मा अपनी सत्ता का
दुरूपयोग करके छोटी छोटी
लड़कियों को अपनी भूख
का शिकार बनाते है. और जो
लोग उनके इस दूसरे
रूप को जान लेते
है वो या तो
दुनिया से विदा हो
जाते है (या कर
दिए जाते है..) या
फिर डर के मारे कुछ बोलने
की हिम्मत नहीं कर पाते.
लेकिन फिर भी जब कुछ
लोग मन मजबूत करके
आगे आते है और
इन कलियुगी बाबाओ की खिलाफ आवाज
उठाते है तो फिर
उनका असली चेहरा सबके
सामने आ जाता है.
सच ही है कि
पाप के घड़ा भर
ही जाता है कभी
ना कभी. जो बात मुझे और
खटक रही है वो
ये है कि ये
रोज-रोज होते खुलासे
लोगो की मन में
साधु-संतो की लिए
अंध घृणा पैदा कर
रहे है. ये सब
सच्चे संतों के प्रति भी
समाज में अश्रद्धा बना
रहा है. नई पीढ़ियां
यह सवाल उठा सकती
हैं कि सच्चे संत
वास्तव में भी हो
सकते हैं क्या?
हमारी भारतीय परंपरा में ‘श्रद्धा’ का अर्थ बताया गया है- ‘श्रत्+धा’ यानी सत्य को धारण करना. सत्य को अपने अनुभवों की कसौटी पर कसते हुए धारण करना ही श्रद्धा है. ऐसे व्यक्ति भी होते रहे हैं जो अध्यात्म-साधना की कसौटियों पर अपने जीवन को कसते हैं. वे धन, सत्ता, वासना जैसे सांसारिक लोभों में नहीं पड़ते. कुछ के नाम मै ले लेती हूँ. कबीर जुलाहे का काम करते थे. नानक ने भी खेती नहीं छोड़ी. नामदेव ने रंगरेज का काम किया और रैदास ने चर्मकार का कार्य करते हुए संतत्व को प्राप्त किया. बुद्ध ने तो राजपाट ही छोड़ दिया और भिक्षा में जो भी मिला उसी से आजीवन गुजारा किया. मीरा भी ऐसी ही थी. इसलिए आज भले ही हमारे बीच सच्चे संतों का घोर अकाल हो चला हो, पर हमे अश्रद्धा से बचना होगा. एक कहावत है कि भूसी को साफ़ करने में चावल नहीं फेकते. मतलब बुरे लोगो से दूर होते होते अच्छे लोगो को नहीं छोड़ते. संतो के साथ हमेशा ही अच्छा होता है बशर्ते वो सच्चा संत हो. और सच्चे संत की पहचान बस उसकी इक्षाओं से की जा सकती है. सच्चे संत अपनी इक्षाओं पर काबू कर लेते है. वो तो बस साधारण सा जीवन जीते है पर बाते असाधारण करते है. ऐसी बाते जो लोगो की ज्ञान चक्षु खोल देती है.
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