देश भक्ति आजकल फैशन बन गई है, समय समय पर नया रूप ले लेती है. ये लोगो के हिसाब से कही, सुनी और समझी जाती है. हम जैसे आम लोग हर बात पर फौजियों की, सरहदों की, शहादतों की बात कर अपनी देशभक्ति दिखाते हैं, वक्त मिले तो नारा भी लगा लेते हैं. इनसे हटके जो जरा ज्यादा समझदार हैं वे देशभक्ति को अपनी रोजी रोटी बनाते है, यानी हमारे नेता गण. उनकी देश भक्ति की बाते तो जितनी की जाए कम है पर आज मैं उस तबके की बात करने जा रही हूँ जो एक ३ घंटे की कहानी से देश भक्ति का बीज बो देते है देखने वालो के मन में. जी हां, मैं अपने बॉलीवुड की फिल्मो की बात कर रही हूँ. कलाकार, निर्देशक और संगीतकार ये तीनो मिलकर कोशिश करते है कि देश भक्ति की छठा आ जाए उनके ३ घंटे के चलचित्र में. पिछले कुछ एक सालो से फिर से देश प्रेम दिखाने वाली फिल्मो का ज़ोर होने लगा है और वो भी इसलिए क्यूकी दर्शक उन्हें पसंद भी कर रहे है खूब. पर क्या आज कल की फिल्मे वो मुकाम हासिल कर पा रही है जो कभी "भारत कुमार" (मनोज कुमार) की फिल्मो ने पाया था?
1965 में हुए भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने यूं ही अभिनेता मनोज कुमार से कह दिया था कि वे उनके नारे ‘जय जवान जय किसान’ पर आधारित कोई फिल्म बनाएं. इसके बाद साल 1967 में मनोज कुमार की अगली फिल्म आई - उपकार. इसमें वे किसान और जवान की भूमिकाएं निभाते दिखाई दिए थे. इस फिल्म के बाद उन्होंने देशभक्ति की इतनी फिल्में बनाईं कि उनका नाम ही भारत कुमार हो गया. शहीद, उपकार, पूरब और पश्चिम, रोटी कपड़ा और मकान जैसी फिल्में बनाने वाले इस अभिनेता की फिल्में आजकल बन रही देशभक्ति की उन फिल्मों से एकदम अलग थीं. आज की फिल्मो में तो नायक देश को बचाने के लिए अकेले ही एक खतरनाक और असंभव लगने वाले मिशन को अंजाम देता दिखाया जाता है. पहले ऐसा नहीं था. मनोज कुमार जिस तरह से अपनी फिल्मों में मजदूरों और आम लोगों के अधिकारों की बातें करते दिखाई पड़ते थे, वह हीरोइज्म के साथ उस दौर के आम जीवन के संघर्ष की वास्तविकता को भी दिखाता था. सबसे बड़ी बात, उनकी फिल्मो में कोई खतरनाक आतंकवादी नहीं होता था, देश के खिलाफ बाहर का कोई ख़ुफ़िया शाजिश नहीं रच रहा होता था और ना ही उन फिल्मो का देशभक्त नायक किसी स्पेशल ट्रेनिंग के बल पर अपना सिक्का ज़माने की कोशिश करता था.
पूरब और पश्चिम की बात करें तो उसमे कोई बाहर का खतरा नहीं दिखाया गया. ना कोई आतंकवादी और ना ही कोई सेठ साहूकार के जुल्म, फिर भी फिल्म में बस देश ही देश था. आज भी इस फिल्म का गाना "है प्रीत जहा की रीत सदा.." मेरे मन को एकदम पुलकित कर देता है. इस फिल्म को जितनी बार देखो, एक नया मंत्र और सीख मिलती है, कभी देश प्रेम की तो कभी रिश्तो की. हर कलाकार अपने आप में एक अलग और प्रभावशाली छाप छोड़ जाता है. हर बार १५ अगस्त और २६ जनवरी को मैं मन ही मन ये सोचती रहती हूँ कि ये फिल्म आ जाए TV पर जिससे मैं इसे देख सकू एक बार फिर से.
आजकल भी कई सारी फिल्मे बन रही है देश भक्ति पर. पर उनमे वो आम आदमी से जुड़ने वाली बात नहीं जान पड़ती. जरुरत से ज्यादा हिंसा और हीरो का एक तरफ़ा वर्चस्व, देश भक्ति के जगह हीरो की सफलताओ का बखान ज्यादा लगता है. कुछ हद तक मुझे "स्वदेश" फिल्म हट के लगती है. एकदम साधारण पर प्रभावशाली. इसके अलावा अगर दिमाग पर जोर दू तो अगला नाम "रंग दे बसंती" फिल्म का आता है जिसने भी देश प्रेम को एक नए आयाम से दिखाया है. पर मनोज कुमार की देश प्रेम से ओत प्रोत फिल्मो का कोई सानी नहीं है. ये उनकी देश प्रेम की फिल्मो की खूबी ही है कि कोई भी १५ अगस्त या २६ जनवरी उनकी फिल्मो को याद किये बिना नहीं जाता. वो कुछ अलग और बेहतरीन ही रहेंगी हमेशा हमेशा..
1965 में हुए भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने यूं ही अभिनेता मनोज कुमार से कह दिया था कि वे उनके नारे ‘जय जवान जय किसान’ पर आधारित कोई फिल्म बनाएं. इसके बाद साल 1967 में मनोज कुमार की अगली फिल्म आई - उपकार. इसमें वे किसान और जवान की भूमिकाएं निभाते दिखाई दिए थे. इस फिल्म के बाद उन्होंने देशभक्ति की इतनी फिल्में बनाईं कि उनका नाम ही भारत कुमार हो गया. शहीद, उपकार, पूरब और पश्चिम, रोटी कपड़ा और मकान जैसी फिल्में बनाने वाले इस अभिनेता की फिल्में आजकल बन रही देशभक्ति की उन फिल्मों से एकदम अलग थीं. आज की फिल्मो में तो नायक देश को बचाने के लिए अकेले ही एक खतरनाक और असंभव लगने वाले मिशन को अंजाम देता दिखाया जाता है. पहले ऐसा नहीं था. मनोज कुमार जिस तरह से अपनी फिल्मों में मजदूरों और आम लोगों के अधिकारों की बातें करते दिखाई पड़ते थे, वह हीरोइज्म के साथ उस दौर के आम जीवन के संघर्ष की वास्तविकता को भी दिखाता था. सबसे बड़ी बात, उनकी फिल्मो में कोई खतरनाक आतंकवादी नहीं होता था, देश के खिलाफ बाहर का कोई ख़ुफ़िया शाजिश नहीं रच रहा होता था और ना ही उन फिल्मो का देशभक्त नायक किसी स्पेशल ट्रेनिंग के बल पर अपना सिक्का ज़माने की कोशिश करता था.
पूरब और पश्चिम की बात करें तो उसमे कोई बाहर का खतरा नहीं दिखाया गया. ना कोई आतंकवादी और ना ही कोई सेठ साहूकार के जुल्म, फिर भी फिल्म में बस देश ही देश था. आज भी इस फिल्म का गाना "है प्रीत जहा की रीत सदा.." मेरे मन को एकदम पुलकित कर देता है. इस फिल्म को जितनी बार देखो, एक नया मंत्र और सीख मिलती है, कभी देश प्रेम की तो कभी रिश्तो की. हर कलाकार अपने आप में एक अलग और प्रभावशाली छाप छोड़ जाता है. हर बार १५ अगस्त और २६ जनवरी को मैं मन ही मन ये सोचती रहती हूँ कि ये फिल्म आ जाए TV पर जिससे मैं इसे देख सकू एक बार फिर से.
आजकल भी कई सारी फिल्मे बन रही है देश भक्ति पर. पर उनमे वो आम आदमी से जुड़ने वाली बात नहीं जान पड़ती. जरुरत से ज्यादा हिंसा और हीरो का एक तरफ़ा वर्चस्व, देश भक्ति के जगह हीरो की सफलताओ का बखान ज्यादा लगता है. कुछ हद तक मुझे "स्वदेश" फिल्म हट के लगती है. एकदम साधारण पर प्रभावशाली. इसके अलावा अगर दिमाग पर जोर दू तो अगला नाम "रंग दे बसंती" फिल्म का आता है जिसने भी देश प्रेम को एक नए आयाम से दिखाया है. पर मनोज कुमार की देश प्रेम से ओत प्रोत फिल्मो का कोई सानी नहीं है. ये उनकी देश प्रेम की फिल्मो की खूबी ही है कि कोई भी १५ अगस्त या २६ जनवरी उनकी फिल्मो को याद किये बिना नहीं जाता. वो कुछ अलग और बेहतरीन ही रहेंगी हमेशा हमेशा..
Comments
Post a Comment