अभी कुछ दिनों पहले ही मैंने अपने बेटे के लिए एक वर्चुअल समर कैंप ज्वाइन किआ. ३० दिन के इस समर कैंप में ३० क्राफ्ट की एक्टिविटीज होगी और हर दिन बच्चो को कुछ न कुछ सीखने को मिलेगा. आज नौवाँ दिन है और मैं उफ़ करने को आ गई हूँ. रोज बेटे को एक्टिविटी के लिए बैठना, उसे समझाते हुए उस दिन का क्राफ्ट बनाना और फिर उसके साथ उसकी फोटो लेना. बड़ा मुश्किल है मुझसे पूछिए तो..ये २ से ३ साल के बच्चे सबसे ज्यादा चंचल होते है. एक जगह शांत होके बैठना उसके लिए बेकार की बात है. वो तो सबकुछ अपने हिसाब से चाहते है. अपने हिसाब से कागज काटना, रंग फैलाना, चीजे तोडना और जब कहो कि "बेटा थोड़ी देर सीधे खड़े हो जाओ.." वो और नहीं आपकी बात सुनते. मस्त है जीवन का ये समय भी.. कोई चिंता नहीं, कोई फ़िक्र नहीं बस आनंद ही आनंद...
अब जब ये समर कैंप शुरू हुआ है मुझे अपनी गर्मी की छुट्टियाँ याद आने लगी है. वो लगभग २ महीने कितने मौज के होते थे स्कूल के समय के. सारा साल बस इन्ही छुट्टियों की आस में कट जाता था और फिर जैसे ही लास्ट पेपर हुआ, मंसूबे बनने लगते थे कि क्या क्या करेंगे इन छुट्टियों में. लास्ट पेपर तो सच में पढ़ा भी नहीं जाता है बस छुट्टियों के सपने आते थे. फिर कुछ दिन दादी के यहाँ, नानी और मौसी के यहाँ जाते थे. सबसे अच्छी बात थी हम हरे-भरे और खुशहाल गॉंव जाते थे छुट्टियों में. वो रोडवेज की बस जिससे हम जाते थे, क्या मज़ा था उसमे सोते सोते जाने का. रास्ते में घर से लाए खीरे और फल खाना, फिर बार बार पापा से पूछना "कब आएगा मौसी का घर.." और पापा का बार बार वही जवाब देना "आने वाला है बस.." जैसे ही गॉंव की पगडण्डी दिखती, ख़ुशी मानो फूट फूट कर निकलती सब तरफ से.. और बस फिर कुछ दिन के लिए भूल जाते थे शहर को अपने..
सुबह जल्दी उठना और उठ कर बाग़ से आए आमों से अपने अच्छे आम अलग करना. फिर बाबा के साथ खेत पर जाना और सुबह की ठंडी हवा का मज़ा लेना. खेत से अपने मन के खीरे और खरबूजे तोडना. कुछ वही खाना और बाकी घर के लिए इकठ्ठे करना. मन किआ तो खेत के टूबवेल में ही नहाना.. स्विमिंग पूल से कम नहीं था कही से भी वो. फिर घर वापस आते समय फुलवारी से फूल चुनना. बाबा खेत से आकर नहा कर पूजा करते थे, और हम बच्चे बस पूजा ख़त्म होने का इंतजार. उसके बाद जो मीठे पारे मिलते थे प्रशाद में वो किसी मॅहगी टॉफ़ी के टक्कर के थे. फिर हम खाना खाते, नास्ता तो खेत पर ही हो जाता था. इतना सब होते होते बस १०:३० बजता था सुबह का. फिर मौसी के हाथ का दाल चावल.. वाह क्या स्वाद था उनके हाथ में.. अब बारी आती आम की. सुबह जो आम अलग किए थे वो खाए जाते थे. बाबा एक कहावत कहते थे कि.."जब तक आम खाते-खाते दाढ़ी (chin) तक छिलके न लग जाए तब तक आम क्या खाया.." खैर, इतने आम कभी खाए नहीं गए..
दोपहर में सब सोते और हम बच्चे खेलते. धूप तब या तो तेज नहीं होती थी या हमें महसूस नहीं होती थी. ३ बजे बाबा चाय पीते थे तो हम बच्चो को बड़ा मज़ा आता था अंगीठी में चाय बनाने का, वो भी केतली में. शाम को फिर शिवाले पर हो-हल्ला आस पास के बच्चो के साथ और फिर ७ बजे शाम के गायत्री जी की आरती होती थी घर के ही मंदिर में. रात बड़ी जल्दी हो जाती है गॉंव में. ८ बजे खाना खा के सब निढाल हो जाते थे अपने अपने बिस्तरों पर. नींद भी बड़ी जल्दी आती थी थके जो रहते थे सब..
एक अजीब सा जादू दिखाते थे बाबा रात में. आंगन में लगे पेड़ हिलते थे रात में हवा से, तो वो कभी बोलते "देखो ये आज राधा कृष्ण बने हैं दोनों पेड़.." और हम बच्चो को सच में राधा कृष्ण से लगने लगते थे वो. कभी कहते "आज ये पैंट-शर्ट और टोपी पहने एक आदमी और दूसरी उसके साथ साडी में कोई औरत हैं.." और पता नहीं कैसे हमे उस दिन वो आदमी-औरत लगने लगते थे दोनों पेड़.. उन पेडों को देखते देखते ही आँख लग जाती थी.. और बस सुबह कब आ जाती पता ही नहीं चलता..
छुट्टियाँ कब बीत जाती,समझ नहीं आता था और वापस आकर बस हॉलिडे होमवर्क दिखाई देता. पूरी छुट्टियों में तो कुछ किआ नहीं होता था तो एक हफ्ते में युद्ध स्तर पर हॉलिडे होमवर्क पूरा किआ जाता. सच कहू तो आज कल के समर कैंप कुछ भी नहीं है हमारे बचपन की छुट्टियों के आगे. हर बार कुछ नया सीखते थे हम. कभी पेड़ पर चढ़ना, कभी कुए से पानी निकालना, कभी चूल्हे पर खाना बनाना तो कभी पत्थर मार कर आम तोडना. कोई आज का समर कैंप ये नहीं सिखाता और न ही सिखा सकता है.. पेड़ ही कहा है शहरो में आम के ऐसे कि उनसे पत्थर मार कर आम तोड़े जा सके.
बड़ी याद आती हैं बचपन वाली गर्मी की छुट्टियाँ, या यूँ कहू कि गॉंव वाली छुट्टियाँ.. जब टीवी नहीं था, फ़ोन नहीं था, कंप्यूटर नहीं था पर मज़ा बड़ा था.. मेरे बेटे को भी ऐसी छुट्टियों का एहसास हो, मेरी कोशिश जरूर रहेगी..उसे अपने गॉंव जरूर ले जाउंगी मैं जहाँ स्मार्ट डिवाइस नहीं होंगे लेकिन परम निर्मल आनंद भरपूर होगा..
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