राम, भारतीय परम्पराओ में एक जाना पहचाना नाम है. चाहे वो किसी भी धर्म- जाति का शख्श हो, राम को जरूर जानता है. हमारे यहाँ के बड़े त्योहारों में दशहरा और दिवाली का सम्बन्ध राम से है. वो सिर्फ एक अवतार नहीं है, राम पुरुषार्थ के प्रतीक है, राम एक आदर्श पुत्र, भाई और राजा है. राम का वर्णन कई जगह और कई बार मिलता है हमारे इतिहास में. न जाने कितनी ही भाषाओ में रामायण लिखी, सुनी और कही गई है. हिन्दू परिवारों में तुलसीदास जी की रामचरितमानस की बड़ी महत्ता है उसमे भी बस राम ही राम है. बड़ो से बच्चो तक को राम का पता है, अंतर बस ये है कि हर शख्श अपनी उम्र के हिसाब से राम को समझता और मानता है.
ये अचानक राम की बातें कहा से आ गई..? बिलकुल, इनका लेना देना राम मंदिर के जुडी खबरों से तो है ही, पर इसमें मेरे बेटे के राम भी है. वो राम जिनकी कहानी मेरा ३ साल का बालक रोज सुनता है मुझसे और अपने पापा से. उसके बालमन में राम एक ऐसा नाम है जिसे उसके पिताजी (राजा दशरथ) बहुत प्यार करते है और जंगल नहीं भेजना चाहते पर कैकेई को दिए वचन से झुक जाते है और राम को जंगल जाना पड़ता है. राम वो हैं जो सीता को बचाने के लिए लंका जाते है और रावण जैसे ख़राब आदमी से युद्ध करते है. वो राम ही हैं जो सीता जी वो वापस लाते हैं लंका से जिससे सीता जी खुश हो जाती हैं और बाकी के प्रजा भी. और खुश होकर सब दिवाली मानते हैं. कल रात कहानी सुनने के बाद मेरे बेटे ने कहा "मैं भी सीता जी को वापस लाता हूँ लंका से.." वो इस एक लाइन से क्या कहना चाहता था ये मुझे समझ आया. वो राम जैसा बनना चाहता हैं..
कमाल की बात हैं न कि बच्चो और बड़ो के राम अलग अलग हैं. मेरे बचपन के राम अलग थे और अब की सोच में राम कुछ और हैं. मेरी शुरुवात की पढाई एक RSS के स्कूल से हुई और ये भी एक सैयोग हैं कि तब ही १९९२ में बाबरी मस्जिद गिरायी गई थी. मुद्दा एकदम उफान पर था और स्कूल में भी राम की ही बातें थी. घर में रामचरितमानस का पाठ हुआ करता था तो राम के बारे में पता ही था पहले से. फिर जब हर तरफ राम ही राम होने लगा तो मन और राम मय हो गया. बचपन में मंदिर या मज़्जिद से क्या लेना देना होता हैं.. तब से ही "श्री रामचंद्र कृपाल भजमन.". याद हैं. पर बड़े होते ही राम के जीवन में और परतें दिखने लगी. राम ने अग्नि परीक्षा क्यों ली सीता की? क्यों उन्हें त्याग दिया जब वो माँ बनने वाली थी? क्या यही पुरुषार्थ हैं अपनी ही अर्धांगिनी को तज देना?
खैर, अपने बचपन का राम फिर से दिखा मुझे मेरे बेटे की बातो में. जो राम जैसा बनना चाहता हैं, बुराई से लड़ना चाहता हैं, सीता को बचाना चाहता हैं. वरना तो आज कल राम बस जन्मभूमि के साथ सुनाई देता हैं. उस ६ दिसम्बर के बाद से हर साल, राम को अपना बताने वाले कही न कही से सुनाई दे जाते हैं. कुछ लोग मंदिर बनाने की बात करते हैं और कुछ ना बनने देने की, पर बड़ों का राम भगवा वस्त्र में धनुष चलाते हुए एक गठीले शरीर वाला एक लड़का हैं जो कि बच्चो के राम जैसा नहीं हैं. बच्चो का राम तो ठुमुक चलने वाला उनके जैसा एक बच्चा ही हैं. वो पितृ भक्त हैं, एक आदर्श भाई हैं और एक रक्षक हैं जो अपने से ज्यादा शक्तिशाली रावण से सीता को बचाता हैं. वो राम अकेले नहीं, बल्कि चारो भाइयो और हनुमान के साथ आशीर्वाद देने वाला एक श्रेष्ठ राजा हैं.
ये दुखद हैं कि राम के नाम पर कथित राम-भक्त और राम-विरोधी दोनों अपनी-अपनी राजनीति करते रहने के लोभ से बाज नहीं आ रहे हैं. अयोध्या और बाबरी को लेकर लड़ने वाले दोनों तरफ के लोग न तो राम को समझ पाए हैं, न रहीम को. अगर समझते तो सबके राम अलग नहीं होते. कबीर ने भी यही कहा हैं "राम रहीमा एकै है रे काहे करौ लड़ाई.." मेरा मानना हैं कि बच्चो के राम ही असली राम हैं.. जिन्हे मन में भी रखो तो सब कष्ट दूर हो जाते हैं..क्या मंदिर और क्या मस्जिद !!
ये अचानक राम की बातें कहा से आ गई..? बिलकुल, इनका लेना देना राम मंदिर के जुडी खबरों से तो है ही, पर इसमें मेरे बेटे के राम भी है. वो राम जिनकी कहानी मेरा ३ साल का बालक रोज सुनता है मुझसे और अपने पापा से. उसके बालमन में राम एक ऐसा नाम है जिसे उसके पिताजी (राजा दशरथ) बहुत प्यार करते है और जंगल नहीं भेजना चाहते पर कैकेई को दिए वचन से झुक जाते है और राम को जंगल जाना पड़ता है. राम वो हैं जो सीता को बचाने के लिए लंका जाते है और रावण जैसे ख़राब आदमी से युद्ध करते है. वो राम ही हैं जो सीता जी वो वापस लाते हैं लंका से जिससे सीता जी खुश हो जाती हैं और बाकी के प्रजा भी. और खुश होकर सब दिवाली मानते हैं. कल रात कहानी सुनने के बाद मेरे बेटे ने कहा "मैं भी सीता जी को वापस लाता हूँ लंका से.." वो इस एक लाइन से क्या कहना चाहता था ये मुझे समझ आया. वो राम जैसा बनना चाहता हैं..
कमाल की बात हैं न कि बच्चो और बड़ो के राम अलग अलग हैं. मेरे बचपन के राम अलग थे और अब की सोच में राम कुछ और हैं. मेरी शुरुवात की पढाई एक RSS के स्कूल से हुई और ये भी एक सैयोग हैं कि तब ही १९९२ में बाबरी मस्जिद गिरायी गई थी. मुद्दा एकदम उफान पर था और स्कूल में भी राम की ही बातें थी. घर में रामचरितमानस का पाठ हुआ करता था तो राम के बारे में पता ही था पहले से. फिर जब हर तरफ राम ही राम होने लगा तो मन और राम मय हो गया. बचपन में मंदिर या मज़्जिद से क्या लेना देना होता हैं.. तब से ही "श्री रामचंद्र कृपाल भजमन.". याद हैं. पर बड़े होते ही राम के जीवन में और परतें दिखने लगी. राम ने अग्नि परीक्षा क्यों ली सीता की? क्यों उन्हें त्याग दिया जब वो माँ बनने वाली थी? क्या यही पुरुषार्थ हैं अपनी ही अर्धांगिनी को तज देना?
खैर, अपने बचपन का राम फिर से दिखा मुझे मेरे बेटे की बातो में. जो राम जैसा बनना चाहता हैं, बुराई से लड़ना चाहता हैं, सीता को बचाना चाहता हैं. वरना तो आज कल राम बस जन्मभूमि के साथ सुनाई देता हैं. उस ६ दिसम्बर के बाद से हर साल, राम को अपना बताने वाले कही न कही से सुनाई दे जाते हैं. कुछ लोग मंदिर बनाने की बात करते हैं और कुछ ना बनने देने की, पर बड़ों का राम भगवा वस्त्र में धनुष चलाते हुए एक गठीले शरीर वाला एक लड़का हैं जो कि बच्चो के राम जैसा नहीं हैं. बच्चो का राम तो ठुमुक चलने वाला उनके जैसा एक बच्चा ही हैं. वो पितृ भक्त हैं, एक आदर्श भाई हैं और एक रक्षक हैं जो अपने से ज्यादा शक्तिशाली रावण से सीता को बचाता हैं. वो राम अकेले नहीं, बल्कि चारो भाइयो और हनुमान के साथ आशीर्वाद देने वाला एक श्रेष्ठ राजा हैं.
ये दुखद हैं कि राम के नाम पर कथित राम-भक्त और राम-विरोधी दोनों अपनी-अपनी राजनीति करते रहने के लोभ से बाज नहीं आ रहे हैं. अयोध्या और बाबरी को लेकर लड़ने वाले दोनों तरफ के लोग न तो राम को समझ पाए हैं, न रहीम को. अगर समझते तो सबके राम अलग नहीं होते. कबीर ने भी यही कहा हैं "राम रहीमा एकै है रे काहे करौ लड़ाई.." मेरा मानना हैं कि बच्चो के राम ही असली राम हैं.. जिन्हे मन में भी रखो तो सब कष्ट दूर हो जाते हैं..क्या मंदिर और क्या मस्जिद !!
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