आज कल कड़ाके की ठण्ड है एनसीआर में, जो मुझे कम ही पसंद आती है. तो ऑफिस में मैं और मेरी दोस्त सौम्या दोनों लंच के बाद थोड़ी देर धूप लेने बाहर जाते है. खिली खिली धूप और रंग बिरंगे फूल देख कर मन खुश हो जाता है. ऑफिस जिस टावर में है उसकी मेंटेनन्स टीम ने चारो ओर अच्छा बगीचा बनाया है जो बैठने की मनाही होने से साफ सुथरा ही रहता है. बगीचों के साथ में चलने के लिए रास्ता बना है जिस पर हम दोपहर की धूप का मज़ा लेते है. पिछले दिनों हम दोनों अपने अपने बचपन की धूप को याद कर रहे थे. पर अब धूप में वो मेरे बचपन वाली बात नही दिखती.
सच कहू तो बचपन में इस धूप की कोई कदर ही नही थी मुझे तो. जब बाहर जाने के लिए अम्मा मना कर देती थी कि "बाहर धूप है.." तो बड़ा गुस्सा आता था इस धूप पर. पर ठण्ड की बात अलग थी. ठण्ड में संडे का दिन पूरा बाहर ही गुजरता था मेरा. स्कूल की छुट्टी होती थी. सुबह नहा कर और जंगल बुक देख कर मैं और मेरी छोटी बहन दोनों धूप में बैठ जाते थे. फिर अम्मा मेरी पसंदीदा 'तहरी' बनाती थी मटर डाल कर. उधर ईस्ट UP में सब्जियों वाले पुलाओ को तहरी बोलते है. मैं उनसे जिद करके अपनी प्लेट भी बाहर धूप में ले आती थी. और जो मज़ा था ना धूप में बैठ कर अम्मा के हाथ की बनी तहरी खाने का वो आज के महंगे रेस्टोरेंट में भी नही आता. फिर मैं अपनी फोल्डिंग के चारो तरफ कपडे फ़ैलाने वाले तारो पर चादरे लगाती थी ताकि तेज धूप सीधी ना लगे. और बस सोने का इंतज़ाम होते ही शॉल के अंदर दुबक जाती थी धूप में नींद लेने के लिए. वैसी नींद अब नही मिलती और ना आती है. फिर जैसे ही धूप कम होती थी और शाम दस्तक देने लगती थी, अम्मा मेरे और मेरी बहन के सर में सरसो का तेल लगाती थी. सर की चम्पी खूब अच्छी लगती थी पर उसके बाद जब अम्मा बाल सुलझाती थी मेरे तो चिढ़ होती थी. लगता था जानभूझ कर तेज से कंघी करती है. क्या दिन थे वो सच में.. दिन में धूप का मज़ा और शाम होते ही रज़ाई में बैठ कर मोमफली खाना !
अब तो धूप में बैठना थेरेपी में आने लगा है. डॉक्टर्स फीस लेकर सलाह देते है धूप में बैठो. लोगो को फ्री की धूप नसीब नही है. उनको sun bath के लिए पैसे देने पड़ते है. बड़े शहरो में आम लोगो के घर किसी कबूरतरखाने से कम नही है. ना खुल कर जगह है और ना हवा धूप का रास्ता. लोग १० २० फ्लोर्स वाली इमारत की किसी मंजिल पर अटके रहते है. छत है नही और घर की बालकनी में इतनी धूप आती नही है. और अगर छत हो भी तो वो कॉमन है वहा सोने के बारे में सोचना भी बेवकूफी होगी. मुझे भी इस धूप की कमी खलती है अपनी जिंदगी में. और ये तब से ज्यादा होने लगी है जबसे पता चला की Vit D की कमी है मुझे. कभी भी कही भी दर्द हो जाता है और डॉक्टर बोलता है कुछ नही है Vit D की कमी है. एक बार तो लगा हार्ट अटैक सा है दर्द पर फिर वही Vit D की कमी थी. शायद बचपन में कदर नही की इस धूप की तभी आज उसके पीछे भाग रही हूं मैं. ऑफिस में धूप वाली लंच टेबल्स के फ्री होने का इंतज़ार करती हूं. खाने के बाद धूप में चहलकदमी करती हूं. फिर वीकेंड्स पर अपने बिल्डिंग की छत पर जाती हूं अपने बेटे को लेकर. जगह वहा भी कम है पर धूप में खेलती हूं अपने बेटे के साथ. ज्यादा तो नही पर कुछ हद तक वो बचपन वाली यादें ताजा हो जाती है. और ये मुई Vit D की कमी से भी तो पीछा छुटाना है. पर अपने बचपन वाली धूप को बड़ा मिस करती हूं!
सच कहू तो बचपन में इस धूप की कोई कदर ही नही थी मुझे तो. जब बाहर जाने के लिए अम्मा मना कर देती थी कि "बाहर धूप है.." तो बड़ा गुस्सा आता था इस धूप पर. पर ठण्ड की बात अलग थी. ठण्ड में संडे का दिन पूरा बाहर ही गुजरता था मेरा. स्कूल की छुट्टी होती थी. सुबह नहा कर और जंगल बुक देख कर मैं और मेरी छोटी बहन दोनों धूप में बैठ जाते थे. फिर अम्मा मेरी पसंदीदा 'तहरी' बनाती थी मटर डाल कर. उधर ईस्ट UP में सब्जियों वाले पुलाओ को तहरी बोलते है. मैं उनसे जिद करके अपनी प्लेट भी बाहर धूप में ले आती थी. और जो मज़ा था ना धूप में बैठ कर अम्मा के हाथ की बनी तहरी खाने का वो आज के महंगे रेस्टोरेंट में भी नही आता. फिर मैं अपनी फोल्डिंग के चारो तरफ कपडे फ़ैलाने वाले तारो पर चादरे लगाती थी ताकि तेज धूप सीधी ना लगे. और बस सोने का इंतज़ाम होते ही शॉल के अंदर दुबक जाती थी धूप में नींद लेने के लिए. वैसी नींद अब नही मिलती और ना आती है. फिर जैसे ही धूप कम होती थी और शाम दस्तक देने लगती थी, अम्मा मेरे और मेरी बहन के सर में सरसो का तेल लगाती थी. सर की चम्पी खूब अच्छी लगती थी पर उसके बाद जब अम्मा बाल सुलझाती थी मेरे तो चिढ़ होती थी. लगता था जानभूझ कर तेज से कंघी करती है. क्या दिन थे वो सच में.. दिन में धूप का मज़ा और शाम होते ही रज़ाई में बैठ कर मोमफली खाना !
अब तो धूप में बैठना थेरेपी में आने लगा है. डॉक्टर्स फीस लेकर सलाह देते है धूप में बैठो. लोगो को फ्री की धूप नसीब नही है. उनको sun bath के लिए पैसे देने पड़ते है. बड़े शहरो में आम लोगो के घर किसी कबूरतरखाने से कम नही है. ना खुल कर जगह है और ना हवा धूप का रास्ता. लोग १० २० फ्लोर्स वाली इमारत की किसी मंजिल पर अटके रहते है. छत है नही और घर की बालकनी में इतनी धूप आती नही है. और अगर छत हो भी तो वो कॉमन है वहा सोने के बारे में सोचना भी बेवकूफी होगी. मुझे भी इस धूप की कमी खलती है अपनी जिंदगी में. और ये तब से ज्यादा होने लगी है जबसे पता चला की Vit D की कमी है मुझे. कभी भी कही भी दर्द हो जाता है और डॉक्टर बोलता है कुछ नही है Vit D की कमी है. एक बार तो लगा हार्ट अटैक सा है दर्द पर फिर वही Vit D की कमी थी. शायद बचपन में कदर नही की इस धूप की तभी आज उसके पीछे भाग रही हूं मैं. ऑफिस में धूप वाली लंच टेबल्स के फ्री होने का इंतज़ार करती हूं. खाने के बाद धूप में चहलकदमी करती हूं. फिर वीकेंड्स पर अपने बिल्डिंग की छत पर जाती हूं अपने बेटे को लेकर. जगह वहा भी कम है पर धूप में खेलती हूं अपने बेटे के साथ. ज्यादा तो नही पर कुछ हद तक वो बचपन वाली यादें ताजा हो जाती है. और ये मुई Vit D की कमी से भी तो पीछा छुटाना है. पर अपने बचपन वाली धूप को बड़ा मिस करती हूं!
शिप्रा जी मौसम कोई भी हो कुदरत के करिश्मा का आनंद लेना चाहिए। ऐसे आपने सही लिखा है जिस चीज की अहमियत हम नहीं देते वही कभी-कभी हमें तरसाते हैं। सुंदर एवं रोचक प्रस्तुति।
ReplyDeleteमेरी पोस्ट का लिंक :
http://rakeshkirachanay.blogspot.in/2014/12/blog-post_17.html