घर के बड़े लोग कहते है जमाना बदल गया है.. या कहे कि जमाना खराब हो गया है. बेंगलुरु की एमजी रोड और ब्रिगेड रोड पर नए साल के जश्न के दौरान लड़कियो से छेड़छाड़ और अभद्रता से जुड़ा एक वीडियो सामने आया. देख कर लगा दुनिया रहने लायक रह ही नही गई है लड़कियो के लिए. कोई भी खुलेआम कुछ भी कर रहा है और हम बस वीडियो देख कर बड़ी बड़ी बाते कर रहे है. ये छेड़छाड़ और परेशान करना नया नही है. ना जाने कब से लड़किया ये सहती आ रही है और घर की बड़ी बूड़िया बस यही समझती आ रही है कि ऐसा होता है. इसे सहना और चुप रहना ही सही है. पर सवाल अब भी वही है जो पहले था.. कब तक सहना होगा?
कितने ही आन्दोलन हुए और कितने ही कदम सरकार ने उठाए निर्भाया की घटना के बाद पर सब नाकाफ़ी है. लोग जो ऐसे अपराध कर रहे है, औरतो और लड़कियो का उत्पीड़न कर रहे है वो बिना किसी डर के घूम रहे है सड़को पर और हम बस नसीहते ले रहे है नेताओ और खुद बने समाज के हितैसियो से. दुनिया कहा से कहा आ गई है और हम अभी भी लड़ रहे है की हमे भी पहचान चाहिए. हमे कोई बेजान चीज़ ना समझा जाए. मुझे याद आई मेरी माँ की सीख जो उन्होने मुझे दी थी कि जमाना कभी बदलता नही है वही रहता है बस लोग बदल जाते है. जमाना पहले भी खराब था औरतो के लिए और आज भी है. समय के साथ अंतर बस ये आया है की अब हम बोलने लगे है. १९५० मे भी लड़कियो और औरतो को एसी बदसलूकी से गुजरना होता था और २०१७ मे भी वैसा ही हो रहा है. जमाने को १९५० की औरतो की सहनशीलता से परेशानी थी और २०१७ मे औरतो की बेबाकी से. तब अपने इसी समाज के कुछ लोग पूरी तरह से ढके हुए तनो मे झाँकने की कोशिश करते थे और आज जो हो रहा है वो हमने देखा ही है बेंगलुरु मे.
तो जब जमाना खराब भी रहना है हमारे लिए तो क्यू ना चार्ल्स डार्विन का नियम लगाए हम लोग. डार्विन ने "जीवन-संघर्ष (struggle for existence) " का एक सहायक सिद्धांत दिया था "अस्तित्व के लिये जीवों का परस्पर संघर्ष". जीवों मे लगातार संघर्ष चलता रहता है. इस संघर्ष में बहुसंख्या में जीव मर जाते हैं और केवल कुछ ही जीवित रह पाते हैं. पर ऐसे एक संतुलन बना रहता है. कुछ सालो पहले जब मेरी छोटी बहन ने बताया था कि उसने
उसे घूरने वाले एक मनचले के पास जाकर अकड़ते हुए पूछा कि "क्यू घूर रहे हो?" तो मुझे लगा था कि उसने ग़लत किया. जाने देती,ऐसे तो सड़को पर आवारा फिरते ही रहते है. पर अब लगता है सही किया था उसने. अब समय आ गया गया है जब हमे संघर्ष से डर हटाना होगा. लड़ना होगा. खुल कर बोलना होगा. तभी जमाने को बता सकते है कि तुम बदलो या ना बदलो हम बदल रहे है.. चुपचाप सहना पुराना हो गया. अब समय है ग़लत को ना सहने का... मुंहतोड़ जवाब देने का..घरो मे अपनो से मिलने वाली नफ़रत को बाहर लाने का... किसी के ग़लत तरीके से देखने और छूने पर उसे सबक सिखाने का.. और अस्तित्व के लिए लड़ने का.. तभी संतुलन मे आ सकती है तन के चोरो की भूख. जमाना खराब है तो हम भी खराब हो जाते है. छोड़ो dance और music की क्लासस, अब self defense ट्रैनिंग मे जाते है.. जीना है तो करना है "जीवन-संघर्ष".
Comments
Post a Comment